चलते-चलते थक कर
किनारे सड़क के
रुकी इक कार से
टिककर कुछ सांसें लेता हूँ
माथे पर उभर आई हैं बूंदें पसीने की...
पोंछते-पोंछते लगता है
जिस कार का सहारा लिया है
वो जैसे मेरी ही ज़िंदगी है
एक जगह पर "पार्क"
सड़क पर आने के लिए
कुछ सांसें इकठ्ठा करती ...
कार की तरह ही
एक छोटी सी नियत परिधि में
सफर तय करती ज़िंदगी
एक नियत क्रम में
जैसे एक खूँटे से बंधी ...
कितना सीमित कर लिया है
अपनी ज़िंदगी को इन रस्तों में
कितना थोड़ा सा हूँ मैं ...
फिर चल पड़ता हूँ
इस बार एक नई दिशा में
यही सोचकर कि शायद
कुछ और खुल जाऊँ
कुछ और खिल जाऊँ
जो भीतर छुपा हूँ
कुछ और मिल जाऊँ
कुछ और संभावनाएं
कुछ नई शुरुआत
कुछ और सड़क और शिखर खोजूँ
क्यूंकि नहीं परखा है सीमाओं को
बहुत थोड़ा सा ही
जाना है और जिया है
खुद को अब तक ...
...रजनीश (30.05.11)
bhut khub likha hai apne...
ReplyDeleteजितना जानो लगता है अभी तो कुछ भी नहीं जान पाया...जितना चलो लगता है अभी तो एक कदम भी नहीं...
ReplyDeleteher subah yahi prakriya , yahi urja , yahi nai aasha ......nirantarta bani rahti hai kuch saansen lekar
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा है सर!
ReplyDeleteसादर
aapka hamare blog par aane aur hamare samarthk banne par haardik dhanyawaad....
ReplyDeleteबहुत सुंदर .... स्वयं को जानने को पूरा जीवन भी कम लगता है......
ReplyDeletebeautiful personification of car !!!
ReplyDeleteयही सोच कर कि शायद
ReplyDeleteकुछ और खुल जाऊं
कुछ और खिल जाऊं
जो भीतर छुपा हूँ
कुछ और मिल जाऊं
बहुत सुंदर भाव ! आभार !
ये ही जानना इतना आसान नही है।
ReplyDeleteजिंदगी के संघर्ष और कशमकश की तुलना कार से .....बहुत ही भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteकार के बहाने जीवन के विविध पक्षों को कुशलता से उभारती रचना।
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विश्व तम्बाकू निषेध दिवस।
सहृदय और लगनशीन ब्लॉगर प्रकाश मनु।
Really nice words, can relate to your poem.
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