कभी कभी मन की
चहारदीवारी पर
धीरे धीरे पूरा मन
डूब जाता है
शून्य की दीवार के अंदर
और बाहर ही नहीं आता
उस दीवार के सहारे
पीठ टिकाये मैं सो जाता हूँ
कभी लगता है
ऊंचाई से कूद गया
फ्री-फॉल की तरह
मैं चलता रहता हूँ
आँखें मूँदे बस ढलान पर लुढ़कती
एक गेंद की तरह
और गेंद जब रुकती है
ढलान खत्म होने पर
शून्य जा चुका होता है
तब पलटना होता है
उस ढलान पर और
एक चढ़ाई करनी पड़ती है
वो शून्य आता कहाँ से है
पता नहीं चलता
वैसे इस शून्य को
हर मन में आते-जाते देखा है ...
....रजनीश ( 20.08.2011)
गहन चिंतन ... शून्य से फिर आरम्भ होता है
ReplyDeleteवाह बहुत सुंदर चित्रण किया है ध्यान जैसी स्थिति का... वह शून्य ही तो हमारा घर है... असली घर जहां हर रोज हम नींद में चले जाते हैं...
ReplyDeleteसार्थक प्रस्तुति ....
ReplyDeleteगहन चिंतन...रचना पढते हुए एक असीम शून्य का अनुभव होता है...बहुत सुन्दर
ReplyDeletedhalaan par pahuch kar fir chadhayi karna dushkar kary hai aur iske liye shoony se baahar aana hi padega.
ReplyDeletegehen abhivyakti.
yahan bhi aaka swagat hai.
http://anamka.blogspot.com/2011/08/blog-post_20.html
गहन जीवन दर्शन है आपकी इस रचना में...
ReplyDeleteजीवन के उतर चड़ाव और मन के गहरे में आई रिक्तता को बाखूबी लिखा है रजनीश जी ...
ReplyDeletesaargarbhit rachna....
ReplyDeletesaargarbhit rachna....
ReplyDeleteसच हितों है सबके ही जीवन में आता है ये शून्य
ReplyDeleteपर कई बार सोचती हूँ कि शायद एक शून्य को दूसरा शून्य ही भर सकता है.
आभार
मन के द्वन्द्व को शब्दों में बखूबी बयान किया है।
ReplyDeleteThinking deep within yourself give us meaning but sometimes meandering thoughts, very beautiful poem.
ReplyDeleteएक शून्य नज़र आता है
ReplyDeleteकभी कभी मन की
चहारदीवारी पर
धीरे धीरे पूरा मन
डूब जाता है
शून्य की दीवार के अंदर
shuruaati पंक्तियाँ बहुत achhi lagin ......