Wednesday, September 14, 2011

हकीकत की हकीकत

 2011-09-08 16.00.04
कुछ गाँठे ऐसी मिलीं हैं डोर में
जो दिखती तो हैं पर हैं ही नहीं

कुछ बंधन ऐसे बने हैं रस्ते में
जो बांधे रहते तो हैं पर हैं ही नहीं

कुछ दीवारें ऐसी उठीं हैं कमरे में
जो खड़ी मिलती तो हैं पर हैं ही  नहीं

कुछ फूल ऐसे खिले हैं आँगन में
जो खूब महकते तो हैं पर हैं ही नहीं

जिये जाते हैं कुछ पलों को बार-बार
जो सांस  लेते  तो हैं पर हैं ही नहीं
...रजनीश (14.09.2011)

14 comments:

  1. Last two lines are so deep, beautiful poem Sir!

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  2. अत्यंत प्रभावशाली प्रस्तुति|

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  3. अतिसुन्दर अभिव्यक्ति
    भावपूर्ण रचना

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  4. बहुत ही बढ़िया सर।
    -------
    कल 16/09/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  5. मन की कश्मकश ..अच्छी प्रस्तुति

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  6. सटीक अभिव्यक्ति ...

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  7. बहुत गहरे जीवन दर्शन को समेटे सुंदर रचना !
    जो दीखता है वह होता नहीं जो होता है वह दीखता नहीं...

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  8. बहुत ही सुन्‍दर शब्‍दों का संगम ...

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  9. होकर न होना ,न होकर भी होना.
    न बरसा मगर फिर भी बरसा है सोना.
    रजनीश जी, बहुत सुंदर अभिव्यक्ति है.

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  10. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति .......

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  11. बहुत सुन्दर शब्द चुने आपने कविताओं के लिए..

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टिप्पणी के लिए धन्यवाद ... हार्दिक शुभकामनाएँ ...