कुछ लाइनें बस बढ़ती चली जाती हैं
कुछ बेदर्द राहें लंबी होती चली जाती हैं
जब लगता है जो चाहा वो बस अब मिला
मंज़िलें कुछ कदम दूर चली जाती हैं
ठंड में बढ़ती ठंडी , गर्मी में बढ़ती गर्मी
बरसात में बारिश होती ही चली जाती है
हर मौसम बढ़ता एक चरम की तरफ
हिमाले की ऊंचाई भी बढ़ती चली जाती है
हवा में बढ़ता धुआँ पानी में मटमैलापन
खाने में मिलावट बढ़ती चली जाती है
हर पल बढ़ता जाता खर्च दवा-दारू का
दबाने गला मंहगाई बढ़ती चली जाती है
बढ़ते दंगे बढ़ता खून खराबे का सिलसिला
हत्यारे बमों की फसल बढ़ती चली जाती है
भ्रष्टाचार बना आचार-व्यवहार की जरूरत
हिम्मत हैवानियत की बढ़ती चली जाती है
...रजनीश (23.09.2011)
बहुत सुन्दर रचना|
ReplyDeleteधन्यवाद ||
हिम्मत हैबनियत की बढती .........क्या बात है बहुत सुंदर बात कही है आभार
ReplyDeleteसब सीमायें पार कर अतिक्रमण करने के प्रयास में हैं।
ReplyDeletesundar rachna
ReplyDeletesab badh raha hai bas ghat rahi hai insaaniyat.bahut achchi rachna.
ReplyDeleteसार्थक व सटीक अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteआज के हालात को शब्दों के माध्यम से प्रस्तुत करती प्रभावशाली रचना !
ReplyDeleteati har cheez ki buri hoti hai. aur in sab me ati ho rahi hai.
ReplyDeletesunder kriti.
sach ko kahti rachna....
ReplyDeleteआज के हालातों को चलचित्र की तरह अपने कविता में प्रस्तुत किया है. बधाई रजनीश जी.
ReplyDeleteयथार्थ का सटीक चित्रण करती रचना...
ReplyDeleteबहुत सही लिखा है ...
ReplyDeleteवर्तमान का सटीक चित्रण किया है और आईना दिखाया है आपने.बढ़िया है.
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