Thursday, November 29, 2012

वक़्त वक़्त की बात













गुजरता जाता है वक़्त
वक़्त को पकड़ते-पकड़ते,

भूलता जाता हूँ अपनी पहचान
वक़्त को पहचानते-पहचानते,

खोता जाता है वक़्त
खोये वक़्त को समेटते-समेटते,

खुद से लड़ जाता हूँ
अपने वक़्त से लड़ते-लड़ते,

खुद उखड़ता जाता हूँ
भागते वक़्त को रोकते-रोकते...

जी लिया वक़्त को जिस वक़्त
बस वही वक़्त अपना होता है
वरना गुम जाती है आवाज़
बस वक़्त को पुकारते-पुकारते ...
.       .....रजनीश (29.11.2012)

6 comments:

  1. बहुत बढ़िया -

    खुबसूरत प्रस्तुति ।।

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  2. वक्त से बतियाना,
    जीवन सहज बहाना।

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  3. सुन्दर रचना

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  4. वक्त की नब्ज़ को खूब परखा है आपने। अच्छी रचना के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें।

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  5. Ajeeb baat hai,kuch din pehle maine isi tarah ka kuch likha tha--padh kar bataiye kaisa laga
    http://jeeteraho.blogspot.com/2013/02/ab-to-hum-aa-gaye-hain-raahon-mein-raah.html

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टिप्पणी के लिए धन्यवाद ... हार्दिक शुभकामनाएँ ...