तकरार क्या है , क्या कहें
राह सूनी, ना पैगाम कोई
इंतज़ार क्या है , क्या कहें
हैं ना वो, ना तस्वीर उनकी
दीदार क्या है, क्या कहें
थोड़ी फकीरी , है मुफ़लिसी भी
बाज़ार क्या है, क्या कहें
दुश्मन नहीं, ना दोस्त कोई
तलवार क्या है, क्या कहें
दिल में दर्द, है सर भी भारी
बीमार क्या है, क्या कहें
घर नहीं, ना शहर कोई
दीवार क्या है, क्या कहें
जुबां कहती, निगाहें चुप हैं
इज़हार क्या है, क्या कहें
हर गली बस बैर मिलता
प्यार क्या है, क्या कहें
......रजनीश (30.09.13)
परिभाषायें अपना यथार्थ खोती जा रही हैं।
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया,सुंदर गजल !
ReplyDeleteRECENT POST : मर्ज जो अच्छा नहीं होता.
सच में विचारणीय प्रश्न ......
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteसुन्दर ग़ज़ल
ReplyDeletenice ...very nice feeling
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