पर्वत मैं हूँ स्वाभिमान का,
मैं प्रेम का महासमुद्र हूँ ,
मैं जंगल हूँ भावनाओं का,
एकाकी मरुस्थल हूँ मैं ,
सरित-प्रवाह मैं परमार्थ का,
मैं विस्मय का सोता हूँ ,
हूँ घाट एक , रहस्यों का,
संबंधों का महानगर हूँ मैं ,
झील हूँ मैं एक शांति की,
मैं उद्वेगों का ज्वालामुख हूँ,
हूँ दर्द भरा काला बादल,
उत्साह भरा झरना हूँ मैं ,
दलदल हूँ मैं लालच का,
मैं घमंड का महाकुंड हूँ,
हूँ गुफा एक वासनाओं की,
भयाक्रांत वनचर हूँ मैं ,
दावानल हूँ विनाशकारी ,
मैं शीतल मंद बयार हूँ ,
हूँ सूर्य किरण का सारथी,
प्रलयंकारी भूकंप हूँ मैं,
मैं हूँ जनक, मैं प्राणघातक,
मैं पोषित और पोषक मैं हूँ,
हूँ इस प्रकृति का एक अंश,
सूक्ष्म, तुच्छ मनुष्य हूँ मैं ..
....रजनीश (25.02.2011)
wah.bahut achcha likhe hain.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना।
ReplyDeleteमैं हूँ जनक, मैं प्राणघातक,
ReplyDeleteमैं पोषित और पोषक मैं हूँ,
हूँ इस प्रकृति का एक अंश,
सूक्ष्म, तुच्छ मनुष्य हूँ मैं ....
बहुत बढ़िया .... कमाल का परिचय दिया आपने मनुष्य का...... मानव के हर रंग हर सोच को स्थान मिला आपकी रचना में .....बेहद प्रभावी रचना
मैं हूँ शीतल मंद बयार,
ReplyDeleteविनाशकारी दावानल हूँ ,
मैं सूर्य किरण का सारथी,
प्रलयंकारी भूकंप हूँ मैं,....
दर्शन से परिपूर्ण सुंदर रचना के लिए बधाई।
nice poem .
ReplyDeleteI am first time in your blog..
Your most welcome in my blog.
सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteआचार्य रजनीश को पढवाने के लिए आभार !
ReplyDeleteअपनी ही रचना के नीचे नाम लिखने की आवश्यकता नहीं होती ! इससे मुझे यह आभास हुआ की यह रजनीश आचार्य रजनीश हैं !
इस रचना में आपकी बेहतरीन शब्द सामर्थ्य का परिचय मिलता है....
"हूँ एक घाट मैं, रहस्यों का,
ReplyDeleteसंबंधों का महानगर हूँ मैं"
बहुत सुन्दर
bahut hi acchi rachna sir.
ReplyDelete