Friday, April 29, 2011

कुछ बातें

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[1]
क्यूँ ढूंढते हो
गॉड पार्टिकल
कृत्रिम वातावरण में,
जबकि गॉड तो
हर पार्टिकल में है ।
[2]
तुम खोज लेते हो
कोई एक नेता
क्यूंकि तुम नहीं चाहते
खुद कुछ  करना
और वक्त भी कहाँ तुम्हारे पास  !
[3]
तुम कहते रहते हो
खत्म हो जाएगी दुनिया
क्यूंकि तुम्हें  चाहिए
कोई बड़ा सा डर
जो तुम्हारे छोटे-छोटे
डर निगल जाये ।
[4]
तुम भ्रष्टाचार
के जिस पेड़ की
टहनियाँ जंतर-मंतर पर
काट रहे थे
उसकी जड़ें तुम्हारे
आँगन तक आई हैं ।
[5]
महापुरुष का
उत्तराधिकारी नहीं होता
क्यूंकि
महापुरुष नाम का
कोई पद नहीं होता ।
...रजनीश (29.04.11)

11 comments:

  1. सभी क्षनिकाएं बहुत गहन ..ये दोनों खास लगीं ---

    तुम कहते रहते हो
    खत्म हो जाएगी दुनिया
    क्यूंकि तुम्हें चाहिए
    कोई बड़ा सा डर
    जो तुम्हारे छोटे-छोटे
    डर निगल जाये ।
    [4]
    तुम भ्रष्टाचार
    के जिस पेड़ की
    टहनियाँ जंतर-मंतर पर
    काट रहे थे
    उसकी जड़ें तुम्हारे
    आँगन तक आई हैं ।

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  2. वाह! कितनी सच्ची और तीखी चोट करती हैं आपकी छोटी छोटी कवितायें, सभी एक से बढ़कर एक !

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  3. आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (30.04.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
    चर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)

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  4. महापुरुष का
    उत्तराधिकारी नहीं होता
    क्यूंकि
    महापुरुष नाम का
    कोई पद नहीं होता ।

    बिल्कुल सही बात ……………और सारी ही गहरा प्रहार करती हैं……………बेहद शानदार्।

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  5. तुम खोज लेते हो
    कोई एक नेता
    क्यूंकि तुम नहीं चाहते
    खुद कुछ करना
    और वक्त भी कहाँ तुम्हारे पास ...

    Sateek ... saarthak kshanika hai ye ...

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  6. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 03- 05 - 2011
    को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  7. महापुरुष का कोई पद नहीं होता ..

    छोटे छोटे डर को निगलने के लिए एक बड़े डर का सहारा ...

    कितना गहन सत्य है एक-एक पंक्ति में !

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  8. तुम कहते रहते हो
    खत्म हो जाएगी दुनिया
    क्यूंकि तुम्हें चाहिए
    कोई बड़ा सा डर
    जो तुम्हारे छोटे-छोटे
    डर निगल जाये


    ॥ मत्स्ये पलायिते निर्विण्णो धीवरो भणति मे धर्मः भविष्यति इति ॥

    मछली हाथ से निकल जाने पर मछुआरा कहेता है,"धर्म हुआ।" भय का भी कुछ ऐसा ही है..!!

    बहुत सुण्दर रचना।

    मार्कण्ड दवे।
    http://mktvfilms.blogspot.com

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  9. पाँचों क्षणिकाएं बेजोड़ ......स्वयं को सार्थक अभिव्यक्ति देतीं क्षणिकाएं

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  10. तुम भ्रष्टाचार
    के जिस पेड़ की
    टहनियाँ जंतर-मंतर पर
    काट रहे थे
    उसकी जड़ें तुम्हारे
    आँगन तक आई हैं ।

    ....बहुत सटीक और सार्थक क्षणिकायें...सभी बहुत सुन्दर .

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टिप्पणी के लिए धन्यवाद ... हार्दिक शुभकामनाएँ ...