Sunday, May 22, 2011

रास्ते का सच

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पहले कई बार लगा 
मैं जहां पहुंचा
क्या  रास्ते के कारण
या कोई और भी रास्ता
गर होता
तो भी वहीं पहुंचता ?
कई बार रास्ते को
देखा है गौर से
इसकी चमड़ी और मेरी चमड़ी
एक जैसी है
फिर एक दिन चलने से पहले
मै चुपचाप
देख रहा था ध्यान से
पता चला 
रास्ता मेरे ही अंदर से
निकलकर बिछ जाता है
इसीलिए मैं कहीं भी चलूँ
मेरे पाँव तले
होता है मेरा ही रास्ता
ये रास्ता मेरे साथ ही
पैदा हुआ था
मेरे साथ जुड़ा हुआ
मैं इसपर ही चल सकता हूँ
कुछ कदम इससे बाहर गया
तो गिरने लगता हूँ
इसलिए इतना जानता हूँ
कि मैं किधर से भी निकलूँ
मंजिल वही होगी
पर क्या  होगी कहाँ होगी ?  पता नहीं ..
क्यूंकि इस रास्ते में
मील का कोई पत्थर नहीं...
...रजनीश (20.05.11)

7 comments:

  1. बडी गहरी भावाव्यक्ति है।

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  2. चलना ही महत्त्वपूर्ण है, मंज़िलों की समझ भी चलने से ही पैदा होती है।

    शुक्रिया।

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  3. मेरे पाँव तले
    होता है मेरा ही रास्ता
    ये रास्ता मेरे साथ ही
    पैदा हुआ था
    मेरे साथ जुड़ा हुआ
    मैं इसपर ही चल सकता हूँ ..


    मर्मस्पर्शी भावाभिव्यक्ति....
    भावपूर्ण कविता के लिए हार्दिक बधाई।

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  4. वाह !बहुत सुंदर, हरेक को अपना रस्ता खुद ही बनाना पड़ता है और मंजिल भी उसी को तलाशनी होती है ...

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  5. भावपूर्ण कविता, हार्दिक बधाई.....

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  6. bhut gahan chintan karati apki rachna...

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टिप्पणी के लिए धन्यवाद ... हार्दिक शुभकामनाएँ ...