Tuesday, June 7, 2011

परतें सच की

DSCN3729
क्या है सच
जो मेरे पास
या जो तुम्हारे पास
तुम्हारा सच मुझे धुंधला दिखता है
मेरा सच तुम्हें
सारे सच चितकबरे हैं शायद
कहीं काले कहीं सफ़ेद
कुछ अंधेरे में कुछ उजाले में
या सारे सच हैं बस अधूरी तस्वीरें
हम दोनों  ही नकार देते हैं
एक दूसरे का सच
दोनों सच को
एक बर्तन में मिलाकर देखो
शायद मिल जाये असली सच
पर चकित ना होना ,
खाली भी मिल सकता है
तुम्हें ये बर्तन

करीब से देखो
सच की होती है कई परतें
हर परत पर होता है सच
परत दर परत बदलता
गहराता चला जाता है सच
अब छील-छील कर परतें
डालते जाओ उसी बर्तन में
आखिरी परत उतरने के बाद
देखना, हाथ में कुछ नहीं बचता
इस कुछ नहीं का रूप
अपरिभाषित,  अज्ञात, अमूर्त, शून्य है
एक छलावा है, एक धारणा है सच
जायके के लिए बना एक व्यंजन
इसीलिए कभी-कभी कड़वा लगता  है
एक मजबूरी है सच ,
एक  आसरा है जीने का,
जिसकी जरूरत होती है
ऑक्सीजन  के साथ ,
इसीलिए उतनी ही परतें उघाड़ना इसकी
जितना तुम बर्दाश्त कर सको ...
...रजनीश (07.06.2011)

9 comments:

  1. बहुत बढ़िया लिखा है सर!

    ReplyDelete
  2. उतनी ही परतें उघाड़ना इसकी
    जितना तुम बर्दाश्त कर सको ...
    waakai

    ReplyDelete
  3. बहुत ही कडवा सच कह दिया।

    ReplyDelete
  4. सुंदर अहसासों से सजी कविता, सच एक आसरा है जीने का, सही है... और सच एक मजबूरी भी बन जाता है. सच पर ही तो टिकी है यह कायनात...

    ReplyDelete
  5. lovely !!

    truth is often hard to digest.

    ReplyDelete
  6. करीब से देखो
    सच की होती है कई परतें
    हर परत पर होता है सच
    परत दर परत बदलता
    गहराता चला जाता है सच.

    सच का सुंदर विवेचन किया कविता के माध्यम से. सुंदर लगी कविता.

    ReplyDelete
  7. मन की पर्तों को खोलती बहुत मर्मस्पर्शी बहुत सुन्दर रचना...

    ReplyDelete

टिप्पणी के लिए धन्यवाद ... हार्दिक शुभकामनाएँ ...