जब भी अपने में झाँका है,
पाया खुद को जकड़े और बंधे हुए ;
कहीं मैं बंधा, कहीं कोई बांधे मुझे,
जो मुझे बांधे , खुद बंधा है कहीं और भी
बुनते है जाल सभी,
बांधते यहाँ -वहाँ , फिर कभी यहाँ तोड़ा वहाँ जोड़ा ,
तोड़ने जोड़ने की कश्मकश ,
इन सारे बंधनों की जकड़न से दूर ,
इन्हें अलग रखकर चलना , सोचा बस है ;
सपना तो हो ही सकता है ये अपने आप को खोलकर पूरा पूरा देखने का ....
Beautiful, breaking and bonding of relationships in very beautiful words.
ReplyDeletejis din yah raas hat jaye, mann ki uljhan door ho jaye
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर पंक्तिया....
ReplyDeleteहम सब एकदूसरे से जुड़े है
ReplyDeleteसुन्दर रचना
आभार
बहुत सुन्दर ख्याल्।
ReplyDeleteबंधन का बहुत सुंदर चित्रण ! भगवान बुद्ध कहते हैं कि इन बन्धनों को हमने कैसे बांधा है यह दे खकर फिर उसका विपरीत करते हुए इन्हें खोलना है...
ReplyDeleteआपकी हर रचना की तरह यह रचना भी बेमिसाल है !
ReplyDeleteएक और सुन्दर कविता आपकी कलम से !