Wednesday, July 27, 2011

उन्मुक्तता


021209 037











जब भी अपने में झाँका है,
पाया खुद को जकड़े और बंधे हुए ;
कहीं मैं बंधा, कहीं कोई बांधे मुझे,
जो मुझे बांधे , खुद बंधा है कहीं और भी
बुनते है जाल सभी,
बांधते यहाँ -वहाँ , फिर कभी यहाँ तोड़ा वहाँ जोड़ा ,
तोड़ने जोड़ने की कश्मकश ,
इन सारे बंधनों की जकड़न से दूर ,
इन्हें अलग रखकर चलना , सोचा बस है ;
सपना तो हो ही सकता है ये अपने आप को खोलकर पूरा पूरा देखने का ....

7 comments:

  1. Beautiful, breaking and bonding of relationships in very beautiful words.

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  2. jis din yah raas hat jaye, mann ki uljhan door ho jaye

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  3. बहुत ही सुंदर पंक्तिया....

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  4. हम सब एकदूसरे से जुड़े है
    सुन्दर रचना
    आभार

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  5. बहुत सुन्दर ख्याल्।

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  6. बंधन का बहुत सुंदर चित्रण ! भगवान बुद्ध कहते हैं कि इन बन्धनों को हमने कैसे बांधा है यह दे खकर फिर उसका विपरीत करते हुए इन्हें खोलना है...

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  7. आपकी हर रचना की तरह यह रचना भी बेमिसाल है !
    एक और सुन्दर कविता आपकी कलम से !

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टिप्पणी के लिए धन्यवाद ... हार्दिक शुभकामनाएँ ...