कभी
एक लकीर खींची थी
मैंने जमीन पर
आज कोशिश की
उसे मिटाने की,
आज लड़ा उस लकीर से
अपनी जमीन पर गड्ढे
कर लिए मैंने
मिट्टी निकाली उस
गहराती लकीर पर डालने लगा
मिट्टी निकालते -निकालते...
फिसल गया गड्ढे में
हाथ-पैर टूट गए
और लकीर गहराती रही ..
ये लकीर ऊंची दीवार लगती है ..
अब उस लकीर से घिरा
लहूलुहान सोचता हूँ
आखिर खींची ही क्यूँ
ये लकीर मैंने
क्यों बनाई ये सीमा
लकीरें खींचने की ये लत
बहुत तकलीफ देती है,
हर बार दिल पर निशान पड़ते हैं
पर क्या करूँ ,
मजबूर हूँ...
....रजनीश (05.01.11)
satya... wakai aaj ham ab bahut hi majboor hain... kheenchee gai lakeerein mitaai nahi jaa saktin...
ReplyDeleteलकीर खींचने की लत .. बहुत अच्छी अभिव्यक्ति ..
ReplyDeleteyahi lakiren to taklif deti hain ...
ReplyDeletelakeer yani vibhajan ki lat vaastav me buri hai bure parinaam hi milte hain.aapki kavita bahut kuch kahti hui.achchi prastuti.
ReplyDeleteयूँ लकीर खींचने कि लत अगर कुछ सकारात्मक बदलाब ला सके समाज में तो सार्थक हो जाये जीवन.
ReplyDeleteयही होता है लकीर कहीं भी खिंचे मिटाये नही मिट्ती।
ReplyDeleteबहुत ही खुबसूरत....
ReplyDeletebhaut hi acchi abhivaykti....
ReplyDeleteलकीर खिंच जाती है कोई जानबूझ कर नहीं खींचता...और वास्तव में यह लकीर होती भी नहीं आभास मात्र होता है...
ReplyDeleteबहुत ही कोमल भावनाओं में रची-बसी खूबसूरत रचना...
ReplyDeleteToday is virtuous ill, isn't it?
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