तकती रह गईं खिड़कियाँ धूप का आना ना हुआ
फंस के रह गई परदों में रात का जाना ना हुआ
दुनियादारी के खूब किस्से गली-गली चला करते है
कोशिश भी की पर कहीं ईमां बेच आना ना हुआ
चाहत हमें कहती रही दो उस सितमगर को जवाब
खुद की नज़रों में दिल से कभी गिर जाना ना हुआ
दिल पे चोट लगती रही अपना खून भी जलाया हमने
पर नादां नासमझ ही रहे थोड़ा झुक जाना ना हुआ
वक़्त हमें समझाता रहा दरिया के किनारे खड़े रहे
उलझे हुए टूटे धागों को पानी में छोड़ आना ना हुआ
माना है अपने हाथों में अपनी तक़दीर लिखते हैं हम
फिर भी कुछ मांगने ख़ुदा के दर ना जाना ना हुआ
....रजनीश ( 16.10.2011)
सुन्दर रचना....अर्थपूर्ण शेर
ReplyDeleteBahut khoob
ReplyDeleteक्या खूब शेर कहे हैं. आभार.
ReplyDeleteबेहतरीन रचना।
ReplyDeleteदिल पे चोट लगती रही अपना खून भी जलाया हमने
ReplyDeleteपर नादां नासमझ ही रहे थोड़ा झुक जाना ना हुआ
बहुत खूबसूरत गज़ल
Really love the way u write :)
ReplyDeletelast verse was superb !!
bahut hi badhiya Ghazal...
ReplyDeleteसभी शेर एक से बढकर एक हैं।
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत गज़ल ......
ReplyDeletebahut achhi gazal
ReplyDeleteमतले की मौलिकता प्रभावित करती है। यह भाव भी अनूठा है, अभिव्यक्ति भी लाज़वाब।
ReplyDeleteउम्दा शेर हैं ..........
ReplyDeleteतकती रह गईं खिड़कियाँ धूप का आना ना हुआ
ReplyDeleteफंस के रह गई परदों में रात का जाना ना हुआ...बहुत खूब....
behtreen gazal...
ReplyDeletelajabab......
ReplyDelete....इसी कशमकश में गुजरती रही जिंदगी
ReplyDeleteमेरे दर पे आजतलक उसका आना न हुआ
बहुत उम्दा गजल !
behtareen ...especially the last one :))
ReplyDelete♥
ReplyDeleteफंस के रह गई परदों में रात का जाना न हुआ …
वाह ! बहुत ख़ूब कहा !
रजनीश जी
कमाल करते हैं आप भी :) बहुत अच्छे !
दीपावली की अग्रिम बधाइयां !
शुभकामनाएं !
मंगलकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
खूबसूरत गज़ल ... बहुत दम है शेरों में ... ज़माने की बात करते हुवे ..
ReplyDeleteबहुत खूब ! बेहतरीन गज़ल..
ReplyDeletegreat improvement rajneesh, this one is awesome. Abhay kumar
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