Saturday, December 3, 2011

आमंत्रण

DSCN5102
घूमती है धरा सूरज के चहुं ओर
चंदा लगाता है धरा के फेरे
पेड़ करते हैं जिसे छूने की कोशिश 
मुंह किए रहती है सूरजमुखी
उस सूरज की ओर

उड़ते है पंछी बहता है पानी
चलती है हवा होती है बरखा
बदलते हैं मौसम
हर कोने पर  होती है
बीतते समय की छाप
जो लौट लौट कर आता है
एक निरंतरता और
एक पुनरावृत्ति
एक नाद जिसकी अनुगूँज हर कहीं
एक स्वर लहरी जो बहती है हर कहीं
सूरज चाँद तारे और धरा
कोई तारा टूटा तो कोई तारा जन्मा
सभी करते नृत्य निरंतर
गाते हैं सभी
ब्रम्हान्डीय संगीत ...

इधर हम धरा के सीने में
अपना शूल चुभाते 
पानी की दिशा मोड़ते
पंछियों के घर तोड़ते 
फैलाते हैं दुर्गंध  और कोलाहल
हम सूरज के साथ नहीं चलते
हमारी दिशा विनाश की दिशा है
हमारा रास्ता विध्वंस का है
जैसे हम इस सुर-संगम का हिस्सा नहीं !

अच्छा लगता है
हमें कृत्रिम वाद्यों की धुन पर
गाना और  नाचना
क्यूंकि  होते हैं हम उस वक्त
प्रकृति के करीब उसी के अंश रूप में
एक क्षणिक आनंद
और फिर से नीरस दिनचर्या
हमें एहसास नहीं
निरंतर गूँजते
संगीत का 
क्यूंकि  हमने रख लिए हैं
 हाथ कानों पर
और पैरों में बेड़ियाँ डाली हैं
हमारे पाँवों को
 नहीं आता थिरकना
प्रकृति के सुर, लय और ताल पर
जो जीवित है गुंजायमान है
हर क्षण और हर कण में

आओ, अपना रास्ता मोड़ लें हम
प्रकृति के साथ प्रकृति की ओर आयें
नैसर्गिक संगीत में हरदम थिरकें
और  उत्सव का हिस्सा बन जाएँ  ...
....रजनीश (03.12.2011)

20 comments:

  1. हर तत्व की अपनी लय है, अपनी ताल है, यदि हम न देख पायें तो हमारा ही दुर्भाग्य है।

    ReplyDelete
  2. प्रकृति के साथ होने और झूमने गाने का संदेश देती सुंदर कविता..!

    ReplyDelete
  3. धारा को तो मुडना ही पडेगा।

    ReplyDelete
  4. prakriti ka saath ho to yun hi pure shareer mein sangeet bhar jata hai...

    ReplyDelete
  5. हमें अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिये प्रकृति से जुडना ही होगा...बहुत प्रेरक प्रस्तुति..

    ReplyDelete
  6. सुन्दर रचना .....भावपूर्ण आह्वान

    ReplyDelete
  7. सुन्दर सन्देश देती हुई खुबसूरत रचना ...

    ReplyDelete
  8. बहुत सुंदर मन के भाव ...
    प्रभावित करती रचना ...

    ReplyDelete
  9. आपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा दिनांक 05-12-2011 को सोमवारीय चर्चा मंच पर भी होगी। सूचनार्थ

    ReplyDelete
  10. प्रकृति के साथ ले बनाये रखना अत्यंत आवश्यक है. इस लय के डगमगाने के दुष्प्रभावों का अनुभव दुखदायी है. सुंदर कविता प्रामाणिक सन्देश देती हुई. बधाई इस सुंदर प्रस्तुति के लिये.

    ReplyDelete
  11. आप की रचना बड़ी अच्छी लगी और दिल को छु गई
    इतनी सुन्दर रचनाये मैं बड़ी देर से आया हु आपका ब्लॉग पे पहली बार आया हु तो अफ़सोस भी होता है की आपका ब्लॉग पहले क्यों नहीं मिला मुझे बस असे ही लिखते रहिये आपको बहुत बहुत शुभकामनाये
    आप से निवेदन है की आप मेरे ब्लॉग का भी हिस्सा बने और अपने विचारो से अवगत करवाए
    धन्यवाद्
    दिनेश पारीक
    http://dineshpareek19.blogspot.com/
    http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.com/

    ReplyDelete
  12. प्रकृति के प्रति अपकी चिंता जायज़ है।

    ReplyDelete
  13. प्रकृति के साथ. प्रकृति की ओर....
    सार्थक चिंतन आदरणीय रजनीश भाई...
    सादर....

    ReplyDelete
  14. sundar wa dhra prawah shbdyojan...kavita ko char chand lagati hai....badhiya prastuti

    ReplyDelete
  15. पर्यावरणीय नैसर्गिक चेतना से युक्त एक माडर्न कविता

    ReplyDelete
  16. sahi kaha, prakriti se tartamya jaruri hai

    ReplyDelete

टिप्पणी के लिए धन्यवाद ... हार्दिक शुभकामनाएँ ...