मैं चलता हूँ जिस रास्ते पर
एक मील एक कदम
और कभी एक कदम
एक मील का होता है
घर की सीढ़ी से उतरते
सड़क पर आते आते
घर के भीतर पहुंच जाता हूँ
और सड़क घर के भीतर
आ जाती है कभी-कभी
सड़क पर चलते चलते
देखता हूँ एक फ़िल्म हर रोज़
वही पीछे छूटते मकान
बदहवास से भागते वही लोग
वही आवाजें वही कदम
जब भी इस सड़क से जाता हूँ
इस सड़क पर मैं नहीं होता
अंनजान चेहरों में
दिखते अपने जाने-पहचाने
मिलते हैं अपने जाने-पहचाने
बेगाने भी हर रोज़
मेरे भीतर एक और मैं
उसके भीतर शायद एक और
परत दर पर कई जिंदगियाँ
बारी-बारी दिन भर
सामने आती रहती हैं
दिन भर कई जगह
बढ़ते कदमों के साथ
थोड़ा-थोड़ा छूटता जाता हूँ
कहीं मैं कहीं मेरे निशान
हर डूबते सूरज के साथ
शाम जो लौटता है
पूरा मैं नहीं होता
घर की दीवारें भी
कुछ बदल जाती हैं
रात को बंद आंखे
देखती हैं कुछ सड़कें घर और चेहरे
जो रात समेट कर ले जाती है
सुबह-सुबह अपने साथ
कुछ पल रोज़
अपना चेहरा देखता हूँ
आईने में ..
पहचान नहीं पाता
देखते देखते
अपना चेहरा भूल सा गया हूँ
और कुछ पलों से ज्यादा
ठहर नहीं सकता
आईने के सामने
क्यूंकि वक़्त कहाँ होता है इतना
क्या करूँ ...
..........रजनीश (09.02.12)
गहन अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteबेहतरीन रचना.
यही तो जीवन की विवशता है।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गहन भावाभिव्यक्ति ....
ReplyDeletebahut sundar
ReplyDeleteसच कहा, कभी काटे नहीं कटती है, कभी सर्र से निकल जाती है जिन्दगी..
ReplyDeleteVery well written Rajnish!
ReplyDeleteNice blog!
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बहुत सुन्दर गहन अभिव्यक्ति.
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