जमीन पर गिर पड़ीं
नीम दर्द से तपती जमीं पर
थोड़ी ठंडक छोड़ती
भाप बनती बूंदें
कुछ पलों के लिए
धूल का गुबार
थम सा गया था
और भाप होती बूंदों
के बचे हिस्सों ने उढ़ा दी थी
एक चादर जमीं पर
कुछ पलों के लिए
ठंडी हवा के झोंके में
जमीं का दर्द घुलकर
गुम गया था
मैं चल रहा था
हौले -हौले सम्हल सम्हल
ताकि जमीं रह सके इस सुकून में
कुछ पलों के लिए
फिर भी उभर आए
मेरे पैरों के निशान
और धीरे धीरे
फिर धूल आने लगी ऊपर
दब गई थी धूल
बस कुछ पलों के लिए
जैसे कोई बूढ़ा दर्द
थम गया हो
बरसों से जागती
आँखों में आकर बस गई हो नींद
एक उजाड़ से सूखे बगीचे में
खिल गया हो एक फूल
कुछ पलों के लिए
कुछ पलों का सुकून
कुछ पलों की बूँदाबाँदी
जलन खत्म नहीं करती
पर एहसास दिला जाती है
वक्त एक सा नहीं रहता
वक्त बदलता है
बुझ जाती है प्यास
बरसते हैं बादल
साल दर साल
पर वक़्त नहीं आता
अपने वक़्त से पहले
................रजनीश (08.04.2012)
वक्त नहीं आता अपने वक्त से पहले ...
ReplyDeleteइसी प्रकार लेते हैं प्रभु धैर्य की परीक्षा ...
पर वक्त आता ज़रूर है ....!!
सुंदर रचना ...
शुभकामनायें ...!!
बहुत सुन्दर वाह!
ReplyDeleteआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 09-04-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
बहुत सुन्दर रचना है बधाई।
ReplyDeletevaqt nahi tharta,,sahi baat....sunder rachna
ReplyDeleteहर घड़ी एक इम्तिहान है. इस इम्तिहान में कामयाबी हासिल करते हुए ही आगे बढ़ना जिंदगी है...
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति. बधाई.
क्या बात है .......खुबसूरत
ReplyDeleteसुंदर रचना ...
ReplyDeleteमनोभावों को बेहद खूबसूरती से पिरोया है आपने.......
हार्दिक बधाई।
"पर वक्त नहीं आता... वक्त से पहले."
ReplyDeleteवाह ...क्या बात ..
जहाँ जहाँ से वह बूँद निकलती है, दर्द की रेख बन जाती है।
ReplyDeleteबदलते वक़्त के बदलते एहसासों ने शायद पिछले हफ्ते की बूँदाबाँदी ने जन्म दिया है, सोंधी महक कुछ ऐसा ही कह रही है, वाह !!!!!!!!!!!!
ReplyDeleteमन और मौसम की कथा व्यथा कहती सुंदर रचना...आभार!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना बधाई...
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति.....बधाई.....
ReplyDeleteवाह! बहुत सुन्दर...
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