Tuesday, May 1, 2012

बहता पसीना











बहता है पसीना
तब सिंचती है धरती 
जहां फूटते है अंकुर 
और फसल आती है 

बहता है पसीना 
तब बनता है ताज 
जिसे देखती है दुनिया
और ग़ज़ल गाती है 

बहता है पसीना 
तब टूटते है पत्थर 
चीर पर्वत का सीना 
राह निकल आती है

बहता है पसीना 
तब बनता है मंदिर 
चलती है मशीनें 
जन्नत मिल जाती है 

जो बहाता पसीना 
जो बनाता है दुनिया 
उम्र उसकी गरीबी में 
क्यूँ निकल जाती है 

....रजनीश (01.05.2012)
अंतर्राष्ट्रीय श्रम दिवस पर 

13 comments:

  1. सार्थक रचना ...
    शुभकामनायें ...

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  2. यही तो भाग्य की विडम्बना है हमारे देश में जो पसीना बहाता है खुद एक झोंपड़े में रहता है बड़ी बड़ी इमारते बनाता है खुद एक कोठरी में रहता है ये फर्क भगवान् ने तो नहीं किया था इंसान ही इंसान का शत्रु है आपकी कविता बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर रही है ...बहुत अच्छा लिखा

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  3. गहन ....न जाने यह कैसा विरोधाभास है....सब कुछ बनाने वालों के जीवन में कमी ही बनी रहती है....

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  4. पसीना जगत में खून बनकर दौड़ता है।

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  5. यही तो मजदूर की विडम्बना है,
    बहुत सुंदर सार्थक सटीक प्रस्तुति,..बेहतरीन रचना

    MY RESENT POST .....आगे कोई मोड नही ....

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  6. यही तो भाग्य की विडम्बना है....
    बहुत सुंदर सार्थक सटीक प्रस्तुति,..बेहतरीन रचना

    MY RESENT POST .....आगे कोई मोड नही ....

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  7. हृदयस्पर्शी भावाभिव्यक्ति....

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  8. सार्थक प्रश्न उकेरती रचना

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  9. बहुत ही बेहतरीन और सार्थक रचना....

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  10. बहुत ही सारगर्भित रचना । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

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  11. यही प्रश्न है सालता, मन को बारम्बार
    फूल खिलाता जो यहाँ,उसके हिस्से खार.

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  12. मजदूर दिवस पर सुंदर पोस्ट !

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टिप्पणी के लिए धन्यवाद ... हार्दिक शुभकामनाएँ ...