Saturday, June 30, 2012

कुछ बात बन जाए




(अपनी एक पुरानी रचना --कुछ शेर फिर से )
कैद  हो ना सकेगी बेईमानी चंद सलाखों के पीछे
घर ईमानदारी के  बनें तो कुछ बात बन जाए

मिट  सकेगा ना अंधेरा कोठरी में बंद करने पर
गर एक दिया वहीं जले तो कुछ बात बन जाए

ना   खत्म होगा फांसी से कत्लेआमों का सिलसिला
इंसानियत के फूल खिलें तो कुछ बात बन जाए

बस तुम कहो और हम सुने  है ये नहीं  इंसाफ
हम भी कहें तुम भी सुनो तो कुछ बात बन जाए

हम चलें  तुम ना चलो तो  है धोखा  रिश्तेदारी में
थोड़ा तुम चलो थोड़ा हम चलें तो कुछ बात बन जाए
...रजनीश 

12 comments:

  1. सुन्दर रचना..
    सभी शेर बेहतरीन है....
    :-)

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  2. बहुत सुन्दर गज़ल.....
    बढ़िया शेर...

    सादर

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  3. बढ़िया विचार ।

    बधाई ।।

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  4. बहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति.......

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  5. बहुत खूबशूरत अभिव्यक्ति ,,,सुंदर संम्प्रेषण,,,,

    MY RECENT POST काव्यान्जलि ...: बहुत बहुत आभार ,,

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  6. सच है, थोड़ा थोड़ा सबको चलना..

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  7. खूबसूरत गज़ल

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  8. बेहतरीन अभिव्यक्ति ,.......शुभकामनायें जी /

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टिप्पणी के लिए धन्यवाद ... हार्दिक शुभकामनाएँ ...