Wednesday, July 18, 2012

घूमता पंखा

मेज पर बिछे काँच में
देखता हूँ घूमते पंखे की परछाई
नहीं दिखती  थकान मुझे
उसके चेहरे पर एकबारगी से
पर देखा जब गौर से  तो
हुआ एहसास उसकी अधेड़ उम्र का

आती है कुछ आवाज़ भी
जब वो घूमता है,
शायद कुछ जंग और कोई पुर्जा है टूटा,
वक्त की कुछ खरोंचें
और उखड़ता पेंट बदन से,
अब  नहीं रही वो चमक
नयी ना रही अब वो छत 
अब परछाईं साफ नहीं देख पाता
मेज पर लगा काँच भी,
पंखे का पुरानापन
काँच में नज़र नहीं आया
एकबारगी से,
पर तन्हा बैठे बैठे
उसके पुरानेपन से
आज हो ही गई मुलाक़ात

दरअसल हवा लेते लेते
कभी ध्यान ही नहीं गया
पंखे की तरफ,
कितनी गर्मियाँ जी गया
कितना पसीना सुखाया ,
छत से उल्टे लटके और
रात दिन मेरे लिए
घूमते इस पंखे
के नीचे बैठ
ज़िंदगी के कितने पन्ने
रंग लिए मैंने


अहमियत ही क्या है पर इसकी
जिस दिन नहीं मिलेगी हवा
बदल दूँगा इसे...
मुझे हवा चाहिए
ये पंखा नहीं

और मैं भी उस पंखे से ज्यादा
कुछ नहीं ...
.....रजनीश (18.07.12)

13 comments:

  1. बहुत लोग हैं जो ऐसे ही परमार्थ में जीवन बता देते हैं..

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  2. सुन्दर रचना...गहन अर्थ लिए....

    अनु

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  3. बहुत अच्‍छी अभिव्‍यक्ति ..

    चाहे सजीव हों या हों निर्जीव ..
    सुख सुविधा देने वाले सबका यही हाल है ..

    समग्र गत्‍यात्‍मक ज्‍योतिष

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  4. Kuch takleef huyee padhne mein iss baar ~

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  5. और मीन भी पंखे से ज्यादा कुछ नहीं .... गहन बात सरलता से कह दी ...

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  6. पंखे की तरफ ध्यान जाते ही उसके पुराने पन का ख्याल आया, ऐसे ही जब तक मानव बच्चा होता है या युवा तब तक अपनी तरफ ख्याल नहीं जाता जब उम्र की दस्तक सुनाई देती है तब ही अपनी ओर नजर जाती है और अपनी उपयोगिता की ओर भी...सुंदर कविता !

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  7. कल 20/07/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  8. खूबसूरत रचना ...

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  9. पंखे की गति से थकान दूर कर पाने का प्रभाव वास्तविकता भी है.

    सुंदर कविता.

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  10. वाह,क्या मौलिक सोच है

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  11. इस पंखे-से ही हम भी हैं, जब काम के न रहेंगे क्या पता हम कहाँ होंगे. भावपूर्ण रचना, शुभकामनाएँ.

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टिप्पणी के लिए धन्यवाद ... हार्दिक शुभकामनाएँ ...