Sunday, July 2, 2017

धूप और बारिश


कुछ दिनों पहले
थी धूप ही धूप
हर तरफ
हर कोई प्यासा था
धरती भी ,
लू के थपेडों से
जल रहा था सब कुछ
बादल के टुकड़ों को
देख ऐसा लगता था
बस यही तो अपना है
जो बुझाएगा ये आग
बचाएगा भाप होती जिंदगी
इस तपते झुलसते वक्त से
निकाल ले जाएगा,
और फिर
हो ही गयी बारिश एक दिन
सब ओर पडती बूंदें
बुझती प्यास
और फैलती सोंधी सी
खुशबू चहुँओर
भीग गया तनमन
पवन करे शोर
मचले कुछ अरमाँ
नाच उठा मोर
काली घटा छाई
संग फुहारें लाई
सबकुछ हरा सा हुआ
प्रीत की रुत आई
पड गए बीज खेतों में
नई फसल लहलहाई,
पी गयी धरती एक-एक बूंद
भर गए खेत, नदी और नाले,
बुझ गयी अगन
बुझ गयी प्यास
खो गयी ख़ुशबू सोंधी
पर बादल गरजते रहे
बिजली चमकती रही
बूंदें बन गयी बाढ
पर बारिश होती रही,
सब कुछ भीगा-भीगा
कभी उमस कभी सीलन
अब लगे सब फीका-फीका सा
बोझिल सा हो गया जीवन
देवता भी सो गए
बारिश हो गई खूब
आखिर भीगते-भीगते
फिर  याद आ गई धूप ....
                            ..........रजनीश  (02/07/17)

6 comments:

  1. धुप का सुंदर चित्रण
    सुंदर रचना
    शुभकामनाएं

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  2. ग्लोबल वार्मिंग के कारण मौसम पहले के से सौम्य नहीं रह गये हैं, पहले बारिश का इंतजार फिर धूप का..जीवन इसी प्रतीक्षा का दूसरा नाम बन गया है.कबीर का दोहा याद आ रहा है, अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप..

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टिप्पणी के लिए धन्यवाद ... हार्दिक शुभकामनाएँ ...