Tuesday, May 10, 2011

माफ़ी

DSCN1612
किया था मना मैंने
पर ये जिद थी तुम्हारी ,
लाइन दर लाइन तुम्हें
लो उतार दिया पन्ने पर,
छुपाएँ कुछ तुम्हें
न ऐसी नीयत हमारी...

अब कहते हो
न रदीफ़ है  न  काफ़िया,
न जाने ये क्या लिख दिया..
टेढ़ी-मेढ़ी अधूरी  लाइनें
जैसे कचरे का ढेर
कोई रख दिया...

मैंने कहा  -
लिखा है ,तुम्हें ही
सादगी, संजीदगी  से, ..
और मांग ली माफ़ी
मैंने अपनी ज़िंदगी से ...
...रजनीश (10.05.2011)

9 comments:

  1. मैंने कहा -
    लिखा है ,तुम्हें ही
    सादगी, संजीदगी से, ..
    और मांग ली माफ़ी
    मैंने अपनी ज़िंदगी से ... bhut khubsurat galti hai aur usse bhi khubsurat maafi hai... very nice panktiya...

    ReplyDelete
  2. वाह! अहसासों को बहुत ही ख़ूबसूरती से व्यक्त किया है आपने... बहुत खूब!

    ReplyDelete
  3. बहुत बढ़िया लिखा है सर!

    ReplyDelete
  4. मैंने कहा -
    लिखा है ,तुम्हें ही
    सादगी, संजीदगी से, ..
    और मांग ली माफ़ी
    मैंने अपनी ज़िंदगी से .


    फिर अब कैसा गिला कैसा शिकवा………………बहुत सुन्दर अल्फ़ाज़्।

    ReplyDelete
  5. वाह, क्या मासूमियत है, खुद ही जिए चले जाते हैं और खुद... सुंदर अंदाज !

    ReplyDelete
  6. न रदीफ़ है न काफ़िया- बस्स!! सच्चे मन के भाव हैं.

    ReplyDelete
  7. बहुत खुबसुरत रचना। जिसके लिए लिखा उसे इसकी पहचान भी तो हो। आभार।

    ReplyDelete
  8. मैंने कहा -
    लिखा है ,तुम्हें ही
    सादगी, संजीदगी से, ..
    और मांग ली माफ़ी
    मैंने अपनी ज़िंदगी से ...
    बहुत सुंदर पंक्तियाँ हैं.... सरल शब्द गहन भाव

    ReplyDelete
  9. बहुत ही खूबसूरत ..आभार

    ReplyDelete

टिप्पणी के लिए धन्यवाद ... हार्दिक शुभकामनाएँ ...