
(अपनी एक पुरानी रचना --कुछ शेर फिर से )
कैद हो ना सकेगी बेईमानी चंद सलाखों के पीछे
घर ईमानदारी के बनें तो कुछ बात बन जाए
मिट सकेगा ना अंधेरा कोठरी में बंद करने पर
गर एक दिया वहीं जले तो कुछ बात बन जाए
ना खत्म होगा फांसी से कत्लेआमों का सिलसिला
इंसानियत के फूल खिलें तो कुछ बात बन जाए
बस तुम कहो और हम सुने है ये नहीं इंसाफ
हम भी कहें तुम भी सुनो तो कुछ बात बन जाए
हम चलें तुम ना चलो तो है धोखा रिश्तेदारी में
थोड़ा तुम चलो थोड़ा हम चलें तो कुछ बात बन जाए
...रजनीश