
कल पढ़ा था अखबार में ,
बसंत आ गया ,
कुछ बासन्ती पंक्तियों के साथ ,
छपी थी एक तस्वीर फूलों  की,
पर खुशबू नहीं मिली उसमें ...
मैंने कोशिश की एक फूल
खींच कर निकालने की,
पर वो पन्ने से बाहर नहीं आया ....
अपने मन को टटोला ,
वहाँ नहीं पहुंचा था बसंत... 
बाहर निकला मैं,
रस्ते-रस्ते, गलियों-गलियों 
दीवारों ,मकानों, चौराहों सब जगह देखा ,
पर कंक्रीट के जंगल में 
बसंत कहीं नहीं मिला,
वो चिड़िया भी नहीं मिली छत की मुंडेर पर,
जो बसंत के पास ही रहती थी,
पता चला उसने वो जगह दे दी है ,
लोहे की एक मीनार को,
तलाशते-तलाशते कई जगह 
निशान मिले, उसके कदमों की छाप मिली, 
पर बसंत नहीं मिला...
वो तो यहाँ से कब का चला गया था,
और बस यादें अब सिमटी थी उसकी,
एक 'वीभत्स' मुरझाए से कागज के अखबार में , 
जो खुद सबूत  था एक हत्या का, 
शहर के छोर पर जो दाई रहती है ,
उसने कहा कि सामने उस गाँव में जाओ,
शायद वहाँ  होगा ,
पर 'गाँव' बीच रस्ते में ही मिल गया ,
वो तो शहर की तरफ भाग रहा था,
पीछे जो जमीन छोड़ी थी उसने 
उसके सीने मेँ उगी गहरी धारियाँ 
देखकर मैं लौट गया थका हारा,
पर  इच्छा बड़ी तीव्र थी ,
आखिर ढूंढ ही निकाला उसे ,
गाँव से लगी पहाड़ी के पार ,
देख ही लिया उसका संसार 
मिट्टी की खुशबू,  झरने की कलकल,
कू-कू की गूंज , खिलती कलियों की अंगड़ाई,
हौले से मटकती बयार के संग झूलती  बौर ,
सुनहली किरणों मेँ चमकता एक-एक रंग ,
वो कर रहा था नृत्य...
प्रेम और जीवन की अभिव्यक्ति हर पल मेँ थी, 
हर एक  पत्ते  , हर एक कण मे था वो वहाँ ,
वैसा का वैसा ...
देखना चाहो तो तुम भी आ सकते हो,
पर दबे पाँव आना यहाँ,
अपनी छाप न पड़ने देना मिट्टी मेँ ,
रुकना नहीं यहाँ ,
इसे बस साँसों मेँ भरकर तुरंत 
लौट जाना दबे पाँव ,
नहीं तो बसंत भाग जाएगा , समझे ? 
..........रजनीश (12.02.2011)