Wednesday, November 30, 2011

ज़िंदगी की दौड़

2011-10-30 17.08.26
शुरू होता है हर दिन
अजान की आवाज़ से
चिड़ियों की चहचहाहट
कुछ अंगड़ाइयों में
विदा होती रात से बातें
फिर धूप की दस्तक
और मंदिर के घंटे
अब लगते हैं दौड़ने
हम एक सड़क पर
जो बस कुछ देर ही सोती है
कानों में घुलता
सुबह का संगीत
कब शोर में बदल जाता है
पता ही नहीं चलता

सूरज के साथ
होती है एक दौड़
और दिनभर बटोरते हैं हम
कुछ चोटें, कुछ उम्मीदें
कुछ अपने टूटे हिस्से
और कुछ चीजें  सपनों की खातिर
पर साथ  इकठ्ठा होता ढेर सारा
बेवजह कचरा और तकलीफ़ें
जो  दौड़ देती है हमें
ये कीमत है जो चुकानी पड़ती है
दौड़ में बने रहने के लिए
एक  अंधी दौड़ 
एक मशीनी कारोबार
एक नशा
जो पैदा होता है
एक सपने की कोख में
और फिर उसे ही खाने लगता है
दौड़ में हमेशा सूरज जीतता है
कूद कर जल्दी से पहुँच जाता है
पहाड़ के पीछे
और जब हम पहुँचते है अपने घर
हाँफते-हाँफते और खुद को बटोरते
दरवाजे पर रात मिलती है
खुद को पलंग पर
पटक कर कब सो जाते हैं
कब खो जाते हैं
पता ही नहीं चलता ...

बहुत थका देता है सूरज ....
सूरज तो कभी नहीं कहता
दौड़ो  मेरे साथ,
तो क्या लालच..
नहीं वो तो बीच रास्ते मेँ
साथ हो लेती है,
दरअसल हमें प्यार दौड़ता है ...
...रजनीश (30.11.2011 )

Tuesday, November 29, 2011

फिर वही बात

2011-10-06 16.41.14
रोज़ इनसे होते हैं दो-चार
सुनते किस्से इनके हजार
खबरों से हैं गरम बाज़ार
बड़ा फेमस है भ्रष्टाचार

किसी को मिली बेल
कोई गया जेल
किसी के नाम एफ़आईआर
कोई हुआ फ़रार

कोई थोड़ा कम
कोई थोड़ा ज्यादा
आपस  में कोई भेद नहीं
किसी की शर्ट सफ़ेद नहीं

जो हवा में घुला हो
उसे मारोगे कैसे
जो खून में मिला हो
उसे पछाड़ोगे कैसे

डंडे चलाने से ये नहीं भागेगा
तुम इसे रोकोगे ये तुम्हें काटेगा
एक छत से भगाओगे दूसरी पर कूदेगा
छूट जायेगा यार इसका साथ ना छूटेगा

अभावों के घर में पलता रहा ये
जरूरतों के साथ ही बढ़ता रहा ये
दम  घोंटना हो इसका
तो गला लालच का दबाओ
पास हो जितनी चादर
उतना पैर फैलाओ
छोड़ खोज आसां रस्तों की
राह मिली जो उसमें कदम बढ़ाओ ...
....रजनीश ( 29 .11. 2011)

Saturday, November 26, 2011

छलावा

2011-11-15 17.34.22
तुम्हें जो खारा लगता है
वो सादा पानी होता है
समझते हो कि आँखों से
मेरा ये दिल टपकता है
मेरे आँसू क्या सस्ते हैं
गैरों के दर्द पर रोएँ
दिल नहीं दिखावा है
वही भीतर से रोता है

फंसा तो खुद में ही मैं हूँ
मुझे तो फिक्र अपनी है
परेशां खुद से ही मैं हूँ
तुम्हारी सुध मैं कैसे लूँ
मुझे फुर्सत कहाँ तुम्हारी
तकलीफ़ों पर मैं  रोऊँ
मेरा करम मेरे सीने में
हर दिन दर्द पिरोता है

होता वो नहीं  हरदम
नज़रों से  जो दिखता है
छलावा है जहां, जिसमें
भरम का राज होता है
खेलते हो  जब भी होली
किसी की सांस छीन कर तुम
लाल वो रंग नहीं होता
किसी का खून होता है

खुद को दोष क्या दूँ मैं
शिकायत क्या तेरी  करूँ
मुझे हर कोई मुझ जैसा
खुद में खोया लगता है
था बनने चला जो ईंसां
ज़िंदगी की राहों पर
जानवर रह गया बनकर
हरदम अब ये लगता है
.....रजनीश (26.11.2011)

Wednesday, November 23, 2011

तलाश

 2011-10-30 11.39.48
ढूँढते थे तुमको हर कहीं
हर रास्ता हर एक गली
हरदम लगा  कि  तुम हो
पर तुम मिले कहीं नहीं

गुम गईं सारी मंज़िले
भटकते रहे हर डगर  
बदले कई आशियाने
चलता रहा सफ़र

तलाश उसकी हर कहीं
अब अपनी हो चली
ढूँढते हैं खुद को हम
क्या आसमां क्या जमीं
....रजनीश (23.11.2011)

Sunday, November 20, 2011

दास्ताँ - एक पल की

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कुछ रुका सा कुछ थका सा
कुछ  चुभा सा कुछ फंसा  सा
ये पल लगता है ...

कुछ बुझा सा कुछ ठगा सा
कुछ घिसा सा कुछ पिसा सा
ये पल लगता है  ...

कुछ गिरा सा कुछ फिरा सा
कुछ दबा सा कुछ पिटा सा
ये पल लगता है ...

दिल में है कुछ बात
जो इस पल से हाथ मिला बैठी
हाथ न आएगा अब जरा सा
ये पल लगता है ...

धूप ठहरती नहीं
न ही रुक पाती है रातें
गुजर जाएगा झोंका निरा सा
ये पल लगता है ...
.....रजनीश ( 20.11.2011)

Monday, November 7, 2011

शब्दों का कोलाज़-1

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आज एक साल का हो गया मेरा ब्लॉग ...
इस अवसर पर पेश है एक नई कविता ...
कविता  बनी है मेरी पुरानी कविताओं के शीर्षकों से ...
 आप इस ब्लॉग पर आए..हृदय से धन्यवाद ..... 
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अब क्या दूँ अपना परिचय
मैं हूँ मेरी कविता में
मेरी आवाज़ है मेरी कविता
मेरी कश्मकश का एक चित्र है
मेरे अनुभव हैं मेरा व्याकरण और शब्दकोश
लाइनों में साँस लेते एहसास
और कुछ लम्हे बन गए तवारीख़
बस खुद को ही लिखा हो ऐसा नहीं
जो थोड़ी बहुत कोशिश की
इस रिश्तों की दुनिया को समझने की
जो मुश्किलें और व्यथा देखता हूँ
उसे भी समेटा है  शब्दों में
बनाया है उनका पोर्ट्रेट
ज़िंदगी एक खेल है चाहत का
ज़िंदगी एक सपना है
ज़िंदगी का अफ़साना जब
कलम से चलकर पन्ने पर पहुंचा
तो पन्ने की छाती पर उभरे चंद शेर
कुछ प्रश्न लिए हुए सीने में
मैं जीता हूँ एक सड़क और सफर
मंजिल की ओर चलते
मिलता और खोता रहा  रास्ते का सच
कहीं कोई मिला  अपना सा
कभी हुआ दृष्टिभ्रम
कहीं हुई एक  बादल से मुलाक़ात
कभी रास्ते में मिल गया बसंत
सुनी गुफ़्तगू गुलमोहर और पलाश की
कभी सूरज की गर्मी में उठाई कलम
कभी भीगे सब पन्ने बेमौसम बरसात में
कभी अपनी आँखों से देखा
सपना एक जमीन का
लिखते लिखते
कभी महसूस किया
धरती का कंपन
कई बार हुई रात से बात
कभी कोशिश की पढ़ने की
समय की भाषा हस्तरेखा में
ढूंढा जब भविष्यफल
तो कविता बनी एक खोज-
हाथ की उस लकीर की
जो कर देती है सच एक सपना 
और जिसमें चाहत को मिलता है
एक खूबसूरत मुक़ाम
कभी वो लिखा
जो तुमने कहा था ...
कभी आया एक खालीपन
जड़त्व एक भावना शून्यता
सोचा लिखूँ तो आखिर क्यूँ
और पन्ने पर मिली एक अलिखित कविता
कही सपने की बात
कभी गाए खुशी के गीत
कई बार हुई तकलीफ़ क्यूंकि
कुछ एहसास ऐसे होते हैं
जिनकी बात ही पूरी नहीं होती कभी
कभी दिल किया
छोड़ सारी आस और  कर कैद अपने आंसू
जी लें  उन्मुक्तता से
थोड़ा सा रूमानी हुआ जाए
हों जाएँ कुछ हल्के -फुल्के से
आखिर कलम भी चाहती है बदलाव
अपरिवर्तन उदास कर देता है
खैर ,समय चलता रहा
और साथ में सफर भी
होली के रंग में भीगे
होली के बाद मिली 
दीपावाली की शुभकामनाएँ
जारी है सफर मिल रहे  हैं  दोस्त
बनते गए  नए-नए हमराज़
एक तस्वीर बन रही है
न थकती है कलम
न खत्म हुआ परिचय
कुछ बातें पुरानी
और नई कहानी
कुछ सदाबहार यादें
फ़िर एक कविता
फ़िर नया शीर्षक
बंद नहीं हुआ खेल साँप-सीढ़ी का  
पन्ने दर पन्ने लाइन दर लाइन
जारी है मेरा बयान
एक ही प्रार्थना
इस वृतांत में बस खुशबूदार
मुस्कुराते शब्द ही हों ....
...रजनीश ( 07.11.2011)

2011-10-19 20.09.53












आप इस ब्लॉग पर आए
यहाँ  अपना कुछ समय  गुजारा
मेरी कविताएं पढ़ी  ( हाँ ..चित्र भी मेरे अपने हैं !)
प्रेरणा दायक टिप्पणियाँ लिखीं...
मेरे लिए बहुत ही सुखद अनुभव है ये ..
इस  प्रेम और उत्साहवर्धन के लिए
आप सब का हृदय से आभारी हूँ
मेरा लिखना जारी है ...
इस ब्लॉग पर जरूर आएँ ..
आपका सदैव स्वागत है ...
धन्यवाद ! हार्दिक शुभकामनाएँ !!

Sunday, November 6, 2011

फ़ेस बुक

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चेहरों की किताब
हर चेहरे में अपना चेहरा
अपने चेहरे में हर चेहरा
मिलता हूँ अपनों से
किताब के पन्नों में
जो उभरते हैं एक स्क्रीन पर
जो कभी हुआ करते थे रु-ब-रु
थाम हाथ जिन्हें महसूस कर सकता था
अब छू तो नहीं सकता
पर देख सकता हूँ
और कभी-कभी तो पहले से भी ज्यादा
चेहरों की ये किताब हरदम साथ रहती है
पन्नों पर बहुत  से ऐसे भी चेहरे आए
जो बस एक धुंधली सी छाया थे
अब यादों ने फिर से पानी दिया
और चेहरों के अंदर से
फिर निकल आया कोई अपना
जुड़ जाती हैं टूटी कड़ियाँ
फिर हाथ आ जाता है वो छूटा सिरा
वक़्त लौट आता है
हम जो ढूंढते हैं वो भीतर ही होता है
किताब के चेहरे दरअसल
रहते हैं दिल में
फिर कोई मुखातिब हो या
दूर बैठा कहीं से
बांटता हो अपनी यादें
अपनी तस्वीरें  अपना मन
और सुनता हो  बातें करता हो
देखता हो और जुड़ा रहता हो
फिर एहसास नज़दीकियों के
मोहताज नहीं रह जाते
किताब एक बैठक बन जाती है
फासला कहाँ रह जाता है ?
अगर किताब के चेहरे असली हैं
तो आभासी कुछ भी नहीं 
साथ के लिए क्या ज़रूरी कि हाथ में हो हाथ
कोई बहुत दूर का  भी पास चला आता है
गम नहीं कि बहुत दूर मेरे घर  से तुम
क्यूंकि  हिस्सा दिल का कभी दूर नहीं जाता है ...
....रजनीश ( 06.11.2011)

Saturday, November 5, 2011

पियानो - एक चित्र

काली सफ़ेद
दहलीज़ें सुरों की,
साल दर साल
हर रोज़ अंगुलियाँ
जिन्हें पुकारती हैं
और हल्की सी आहट सुन
सुर तुरंत फिसलते बाहर चले आते हैं
कभी नहीं बदलती दहलीज़ सुरों की
और मिलकर एक दूजे से
हमेशा बन जाते हैं संगीत
जो उपजता है दिल में ,
पियानो पर चलती अंगुलियाँ
कभी साथ ले आती हैं तूफान
कभी ठंडी चाँदनी रात की खामोशी,
दिल की धड़कनें अंगुलियों पर
नाचती है सुरों के साथ
फिर पियानो बन जाता है दिल,
एक विशाल सागर
जिसकी लहरों पे सुरों की नाव
में तैरते हैं जज़्बात ...
एक दर्पण दिल का
वही लौटाता है
जो हम उसे देते हैं ...
....रजनीश (04.11।2011)

Tuesday, November 1, 2011

गणित

बस कुछ लाइनें ज़िंदगी के गणित पर
जहां सवालों के हल में होते हैं ढेरों सवाल
और एक सवाल में मिल जाता है
किसी और सवाल का जवाब
न होते हैं एक और एक ग्यारह
न होते हैं एक और एक दो
यहाँ गणित के नियम तय नहीं होते
अपना अपना तजुर्बा ...

जैसे कुछ जोड़ा तो कुछ घट सा गया
जब कुछ छूटा तब  कुछ पास निकला 
जो दिल से बांटा वो बेहिसाब बढ़ा
जिसे सहेजा वो हर बार कम निकला
हिसाब  जब जब लगा कर हमने देखा
सूद हमेशा असल से ज्यादा निकला
....रजनीश (31.10.11)

पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....