रास्ता अनजाना था
लोग भी नए
मौसम भी कुछ नया सा
नए दरख़्त नई छांव
नई इमारतें नए गांव
रास्ता था मुझे चलना था
रास्ते पर आगे बढ़ना था
तो चलता गया
मैं आगे बढ़ता गया
थका तो सुस्ता लिया
कभी फिसला तो उठ गया
कभी रास्ता तो कभी लोग
कभी मजबूरी कभी चाहत
चलाते रहे मुझे
मेरा चलना जारी था
फिर लगा इस रास्ते में तो
बहुत से गड्ढे हैं चाल भी धीमी
पहुंच ही नहीं रहा कहीं
लगा गलत चुन लिया रास्ता
सोचा फिर से शुरू करूं
इसे भूलूं कुछ बेहतर करूं
ढूंढ़ कर रास्ते का नया सिरा
फिर वहीं से जहां से चला था
पर न मैं अब वो था
न ही रास्ता वो था
बदले से दरख्त बदली सी छांव
बिगड़ती इमारतें बदला सा गांव
रास्ता भटकन से भरा
रास्ते में गड्ढे नहीं पर घुमाव थे
तो बात बन न सकी
फिर से शुरुआत हो न सकी
फिर वही पशोपेश
फिर वही चाहत
फिर वही उधेड़बुन
फिर वही तलाश
फिर ढूंढ़ता हूं एक रास्ता
........रजनीश (२८. फ़रवरी २०२०)
3 comments:
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 28 फरवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
धन्यवाद
मार्मिक सत्य... रास्ते तो हैं, मंज़िल नहीं मिलती...
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