Friday, July 14, 2017

बरसात

गिरता पानी
बहती नदिया
ओढी धरती
हरी चदरिया

आया सावन
गरजे बदरिया
चमके बिजुरी
बैरी सांवरिया

भीगा आंगन
भीगी गलियां
पड़ गये झूले
नाचे गुजरिया

छुप गया सूरज
घिर आए बादल
खो गया चंदा
गुमी चंदनिया

मौसम भीगा
भीगा तनमन
हर दिल बहका
ले कौन खबरिया

गिरता पानी
बहती नदिया
ओढी धरती
हरी चदरिया
..........रजनीश (14.07.17)

Friday, July 7, 2017

मुश्किल और आसान

जिंदगी है मुश्किल
या जिंदगी आसान
कम से कम
ये तय कर पाना
नहीं  आसान
जो करता हूँ कोशिश
इसे आसान बनाने की
ये और मुश्किल
होती चली जाती है
जिन लम्हों के  मुश्किल
होने का होता है डर
वही बन जाते हैं आसान
जो एक के लिए मुश्किल
वो दूजे के लिए आसान
जिदंगी तो बस जिंदगी है
ना मुश्किल ना आसान
ये मुश्किल और आसान का रिश्ता
दरअसल दिलो-दिमाग  से
जोड़ रखा है मैंने
वरना क्या मुश्किल
और क्या आसान
.........रजनीश  (09.07.17)

Sunday, July 2, 2017

धूप और बारिश


कुछ दिनों पहले
थी धूप ही धूप
हर तरफ
हर कोई प्यासा था
धरती भी ,
लू के थपेडों से
जल रहा था सब कुछ
बादल के टुकड़ों को
देख ऐसा लगता था
बस यही तो अपना है
जो बुझाएगा ये आग
बचाएगा भाप होती जिंदगी
इस तपते झुलसते वक्त से
निकाल ले जाएगा,
और फिर
हो ही गयी बारिश एक दिन
सब ओर पडती बूंदें
बुझती प्यास
और फैलती सोंधी सी
खुशबू चहुँओर
भीग गया तनमन
पवन करे शोर
मचले कुछ अरमाँ
नाच उठा मोर
काली घटा छाई
संग फुहारें लाई
सबकुछ हरा सा हुआ
प्रीत की रुत आई
पड गए बीज खेतों में
नई फसल लहलहाई,
पी गयी धरती एक-एक बूंद
भर गए खेत, नदी और नाले,
बुझ गयी अगन
बुझ गयी प्यास
खो गयी ख़ुशबू सोंधी
पर बादल गरजते रहे
बिजली चमकती रही
बूंदें बन गयी बाढ
पर बारिश होती रही,
सब कुछ भीगा-भीगा
कभी उमस कभी सीलन
अब लगे सब फीका-फीका सा
बोझिल सा हो गया जीवन
देवता भी सो गए
बारिश हो गई खूब
आखिर भीगते-भीगते
फिर  याद आ गई धूप ....
                            ..........रजनीश  (02/07/17)

Thursday, June 15, 2017

चलो कुछ तो है


ईश्वर का  पता नहीं
पर आस्था तो है
मंजिल का पता नहीं
पर रास्ता तो है
न्याय का  पता नहीं
पर अदालत तो है
सजा का तो पता नहीं
पर हिरासत तो है
जीत का पता नहीं
पर हौसला तो है
क्या सही-गलत पता नहीं
पर फैसला तो है
कौन अपना है पता नहीं
पर लगाव तो है
मंजिल समंदर है पता नहीं
पर बहाव तो है
..........रजनीश  (15/06/17)

Sunday, June 11, 2017

क्यों किसान रोता है

क्यों किसान रोता है
सबका अन्नदाता
आएदिन
क्यों भूखे पेट सोता है
क्यों किसान रोता है
जीवन भर
जीवन से लड़ता
यकायक  जीवन
खत्म करता है
क्यों किसान रोता है
घटती जमीन
बढ़ता कर्जा
अपना पसीना बोता है
क्यों किसान रोता है
उधारी घटती नहीं
आय बढ़ती नहीं
बरस जाए बादल
बाट जोहता है
क्यों किसान रोता है
दुनिया चांद पर
समय बदलता
किसान अब भी
उसी जमीं पर
दिन-रात एक कर
अपने हल से
जीवन पहेली का
हल खोजता है
क्यों किसान रोता है

.............रजनीश  (11.06.17)

Monday, June 5, 2017

पर्यावरण दिवस













पर्यावरण दिवस
की जरूरत
तय  हो  गयी थी
उसी वक्त
जब पहली बार
पत्थर रगड़कर
आग बनाई थी हमने
पेड़ कभी याद आएंगे
तय हो गया था
उसी वक्त
जब पहला पेड़
काटा था हमने
बेदम हो जाएंगी साँसे
तय हो गया था
उसी वक्त
जब जल से हटकर
कोई द्रव
बनाया था हमने
शोषण होगा धरा का
ये तय हो गया था
उसी वक्त
जब कुछ तलाशने
पहली बार चीर
छाती धरा की
एक गड्ढा बनाया था हमने
ये सब तय था
क्योंकि हमारी दौड़ ही है
अधिक से अधिक
पा लेने की
जीवकोपार्जन के नाम पर
दोहन हमारा स्वभाव ,
दिमाग चलता है हमारा,
एक होड़ के शिकार हैं हम
क्योंकि,
विकासशील हैं हम
आविष्कारक हैं
अन्वेषक हैं
प्रगतिशील हैं
प्रबुद्ध और सर्वोत्कृष्ट
प्रजाति हैं हम
हमारी जरूरतें
हमारी जिम्मेदारियों से
हमेशा आगे रहीं हैं,
तो अब मनाते रहें
पर्यावरण दिवस
                ••••••रजनीश (05/06/17)

Thursday, June 1, 2017

मन, तू रहता है कहाँ

ओ प्यासे
खो जाने वाले
बिना ही बात 
मुस्कुराने वाले
मन , तू रहता है कहाँ
ओ पगले
रुलाने वाले
जब-तब
मदहोश हो जाने वाले
मन, तू रहता है कहाँ
ओ भंवरे
खूब बहकने वाले
प्यार के गीत पर
चहकने वाले
मन, तू  रहता है कहाँ
ओ झूठे
बहकाने वाले
मंदिर भी
कहलाने वाले
मन, तू रहता  है कहाँ
ओ बच्चे
सब कुछ चाहने वाले
सीमा -रेखाएँ लांघने वाले
मन, तू रहता है कहाँ
मन तू आखिर है कहाँ 
मुझसे मुझे चुराने वाले
बस में मेरी न आने वाले 
भला-बुरा दिखलाने वाले
ओ आईना कहलाने वाले 
सच है गर यारी हमारी 
बता देह में जगह तुम्हारी
आँखे तो बस
देखती हैं प्यार से
कान सुनते बस धड़कन
जुबां सुनाती बातें
हाथ पकड़ते कम्पन
हर अंग तुम्हारी चुगली करता
तू कहीं तो है ये हरदम लगता
मन, तू रहता है कहाँ
ढूंढते-ढूंढते थक गया मैं
भीग गया पसीने में
भेजे से तो बैर है तेरा
क्या रहता है तू सीने में
पर सीने में तो दिल है
उसका जीने से सरोकार
वो तो बस दे रहा
लहू को रफ्तार
वहां कहाँ है
गंगा-जमुना
वहां तो बस रक्त है
जान ही लूंगा
भेद मैं तेरा
अभी भी काफी वक्त है 
  ...........रजनीश  (01/06/17)

Tuesday, May 30, 2017

वक्त-वक्त की बात है

वक्त-वक्त की बात है
कभी वक्त खोया कभी वक्त पाया
कभी वक्त ज्यादा कभी वक्त कम
वक्त-वक्त की बात है
कभी वक्त भूला कभी उसे भुलाया
कभी जोश ज्यादा कभी होश गुम
वक्त-वक्त की बात है
कभी वक्त रूठा कभी वक्त गाया
कभी हंसी गूँजी कभी आंख नम
वक्त-वक्त की बात है
कभी वक्त छूटा कभी लौट आया
कभी वक्त आगे कभी आगे हम
वक्त-वक्त की बात है
कभी वक्त भारी कभी वक्त भाया
कभी वक्त हारा कभी हारे हम
वक्त-वक्त की बात है
कभी वक्त साथी कभी वक्त ने मारा
कभी जान आयी कभी निकला दम
वक्त-वक्त की बात है
कभी वक्त ने रोका कभी हमें  भगाया
कभी नमक ज्यादा कभी चीनी कम
वक्त-वक्त की बात है
कभी वक्त रोया कभी वक्त रुलाया
कभी तुम हमारे  कभी अपना गम
वक्त-वक्त की बात है
हम वही हैं तुम वही हो
बस दिन कभी , कभी रात है
वक्त-वक्त की बात है,  वक्त-वक्त की बात है
                                             .....................रजनीश (30/05/17)

Sunday, May 28, 2017

एक उलझन

कविता के लिए वक्त निकालना
आपाधापी भरी जिंदगी में
कुछ पल अपने लिए तलाशना है
कविता एक चाहत है ,
अनुभूतियों को आयाम देना ,
शब्दों से खेलना और बातें करना है
पर और भी बहुत कुछ है
करने के लिए जिंदगी में
वक्त कम और चाहतें ज्यादा
कविता केवल अपनी डायरी तो नहीं
कि जो महसूस किया
जहाँ से गुजरा
जिस पल को जिया
बस लिख दिया
जो मैं जी रहा हूँ, जिंदगी सिर्फ वही तो नहीं
पल एक पर अनुभूतियाँ असंख्य
कविता मे उन्हें भी तो उकेरना है
याने ये लम्बी फेरहिस्त मे जुडा
एक और काम
फिर कविता कहाँ रह जाती है अपने लिए
और फुरसत के पलों में जज़्बातो के साथ जूझना
कहाँ सुकून दे सकता है
कविता लिखना भी एक संघर्ष से कम नहीं
रजनीश (28/05/17)

Tuesday, March 7, 2017

मैं तो चलता जाता हूँ


मैं तो चलता जाता हूँ 
समय की धुन में
समय की सुनता 
आगे बढ़ता जाता हूँ 
मैं तो चलता जाता हूँ 

कहाँ से चला पता नहीं 
कहाँ जा रहा पता नहीं 
कहाँ हमसफर पता नहीं 
कहाँ है रास्ता पता नहीं 
फिर भी चलता जाता हूँ 
आशाओं की माला बुनता 
आगे बढ़ता जाता हूँ 
मैं तो चलता जाता हूँ 

क्या है सच ये पता नहीं 
क्या झूठ है पता नहीं 
क्या  सही था पता नही 
क्या गलत था पता नहीं
फिर भी चलता जाता हूँ 
भीतर की आवाज मैं सुनता
आगे बढ़ता जाता हूँ 
मैं तो चलता जाता हूँ 

क्या है धोखा पता नहीं 
कोई खोजे मौका पता नहीं 
कौन है अपना पता नहीं 
कौन सहारा पता नही 
फिर भी चलता जाता हूँ 
ढाई आखर प्रेम के पढ़ता
आगे बढ़ता जाता हूँ 
मैं तो चलता जाता हूँ 

मैं तो चलता जाता हूँ
                                                 

Friday, February 3, 2017

जिंदगी- सपना- गम- हम


 जिंदगी
तू है जिंदगी आसां जरा भी मुश्किल नहीं पर ये जाना
ख्वाहिश अपने ढंग से जीने की, तुझे दुश्वार बना देती है


सपने
सपने छोटे ही अच्छे बड़े की कीमत भी बड़ी होती है
हो सपना कोई भी पूरा खुशी तो हमेशा पूरी होती है


 गम
करते हैं गम का शुक्रिया खुशी से पहचान कराने का
वो भी बार बार आकर खुश रहना सिखा जाता है


गुस्से को समझो
गुस्से को आने दो पर गुस्से को जाने दो
समझो क्या कहता है पर घर ना बनाने दो


हम खुद
हम देखते हैं वो दिखता नहीं जो देखने पर
जबसे देखा है खुद को बैठ आईने के भीतर


पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....