Friday, October 30, 2020

इम्यूनिटी

बैठे-बैठे यूं ही
खुद से पूछ लिया
करते क्या हो आखिर
तुम दिन भर 
सवाल वाजिब था 
जवाब भी मुश्किल
क्या करता रहता हूं 
मैं आखिर दिन भर 
 
ना सब दिन समान 
ना इसके हर घंटे इक जैसे  
फिर करता क्या रहता हूं 
बताऊं तुम्हें कैसे 
कुछ शब्दों में 
जीवन भर की कहानी 
बखान करने  
समेटूं इसे कैसे

भीतर उतर के फिर
मैंने यह जाना 
ये कुछ और नहीं 
बस संघर्षों का अफसाना 
मैं ये करता रहता हूं 
कि बस लड़ता रहता हूं 

लड़ाई भीतर भी होती है 
लड़ाई बाहर भी होती है 
लड़ाई अस्तित्व की
खुद को बचा रखने की 
लड़ाई खुद से भी होती है 
लड़ाई औरों से भी होती है 

लड़ाई जीवाणु से 
लड़ाई विषाणु से 
लड़ाई कीटाणु से 
लड़ाई रोगाणु से

लड़ाई आबो हवा से
लड़ाई हालातों से 
लड़ाई महामारियों से 
लड़ाई बीमारियों से 

तन को बचना है 
वैसे ही मन को भी 
तन भी लड़ता है 
मन भी लड़ता है 

लड़ाई तन की है 
और लड़ाई मन की भी 
रोगाणु तन को सताते हैं 
हालात मन को सताते हैं

तन के विषाणु हैं 
और मन के भी 
तन के लिए वैक्सीन हैं
और मन के भी 

पर हर मर्ज के लिए 
वैक्सीन नहीं होता 
सिर्फ वैक्सीन के सहारे 
तो तैयारी अधूरी है
लड़ाई तन की हो 
या लड़ाई मन की
खुद को बचाए रखने के लिए
इम्यूनिटी जरूरी है 

.....रजनीश (३०.१०.२०२०, शुक्रवार)

Wednesday, October 28, 2020

जरूरतों का गणित

जिंदगी अकेली नहीं
जिंदगी की साथी है जरूरत
चोली दामन का साथ 
कुछ ऐसा है जैसे 
जिंदगी का दूसरा नाम है जरूरत 

जिंदगी के लिए जिंदा रहना जरूरी है 
जिंदा रहने के लिए बहुत कुछ जरूरी है 
जरूरतों के बिना जिंदगी नहीं 
जिंदगी है तो जरूरी है जरूरत 

जिंदगी एक पहेली है ठीक वैसी
जैसा है जरूरतों का हिसाब किताब 
जरूरतों का गणित 
कितना अजीब है 
जरूरतों का जाल 
जिंदगी का नसीब है 

जरूरतों का जोड़ - घटाव 
जरूरतों का गुणा - भाग 
किताबों में वर्णित नहीं 
जरूरतों का सीधा - सीधा गणित नहीं 

एक जरूरत , 
जरूरत ही नहीं रह जाती 
जब कोई और 
जरूरत आ जाती है 
जिसकी कभी जरूरत ही नहीं थी 
वो कभी पहली जरूरत 
बन जाती है 

एक जरूरत में 
दूसरी जरूरत मिल जाने से 
जरूरत ही खत्म हो जाती है 
कभी कई जरूरतों को 
आपस में जोड़ने से 
एक जरूरत बन जाती है 

जरूरतें पूरी भी होती हैं 
पर जरूरतें खत्म नहीं होतीं
जरूरतें थोड़ी भी लगें तो 
जरूरतें कम नहीं होतीं
 जरूरतों की कीमत होती हैं 
 कुछ जरूरतें बेशकीमती होती हैं

जरूरतों को जानना होता है
कुछ जरूरतों को भुलाना होता है 
जरूरतों को मानना होता है 
कुछ जरूरतों को मनाना होता है 

गणित में 
एक तरफ शून्य होता है 
दूसरी तरफ अनंत 
एक तरफ कुछ नहीं 
दूसरी तरफ सब कुछ पूर्ण 
पर जरूरत का सिद्धांत 
तो अपूर्णता का सिद्धांत है 
क्यूंकि जरूरतें अनंत है  
पर जरूरतें अपूर्ण हैं 
अनंत भी हैं और अपूर्ण भी हैं

जब तक जिंदगी है 
जरूरतें अपूर्ण ही रहती हैं 
जरूरतें ख़तम 
तो जिंदगी ख़तम 

जिंदगी और जरूरत 
दोनों को एक दूसरे की जरूरत है 
एक समीकरण है 
दोनों के बीच 
जिसका हल मिलता नहीं 
गणित की किताबों में

.....रजनीश ( २८.१०.२०२०, बुधवार)

Monday, October 26, 2020

अच्छा - बुरा

अच्छा क्या है 
बुरा क्या है 
कुछ अच्छा कभी-कभीअच्छा नहीं  
कुछ बुरा कभी-कभी नहीं बुरा

किसे कहूं अच्छा 
किसे कहूं बुरा 
जो मेरे लिए अच्छा 
वो तुम्हारे लिए बुरा
जो तुम्हारे लिए अच्छा 
वो मेरे लिए बुरा 

जैसे जैसे 
पैमाने बदलते हैं 
वैसे वैसे 
अच्छे-बुरे के 
मायने बदलते हैं 
फिर अच्छा क्या है 
फिर बुरा क्या है 
ये सवाल , सवाल ही रहेगा
जब तक फैसला
 तुम्हारा होगा या मेरा 
 जवाब मिलेगा 
 जब फैसला 
 ना तुम्हारा ना मेरा 
 जब फैसला 
 इंसानियत करेगी 
 क्यूंकि इंसानियत से बड़ा 
 कुछ भी नहीं 

बुरा वहां 
जहां इंसानियत मर जाए
बुरा वहीं 
जहां इंसानियत हार जाए
अच्छी है वो बात 
अच्छी है वो चीज
जिसमें कोई भी हारे
 पर हो इंसानियत की जीत

.....रजनीश (२६.१०.२०२०, सोमवार)

Thursday, October 22, 2020

अपेक्षा

सूरज से अपेक्षा 
धूप दे पर लू नहीं

बादल से अपेक्षा 
पानी दे पर बाढ़ नहीं

हवा से अपेक्षा 
ठंडक दे पर आंधी नहीं

रास्ते से अपेक्षा 
मंजिल दे पर छाले नहीं 

धरा से अपेक्षा 
जगह दे पर भूकंप नहीं 

मित्र  से अपेक्षा 
सवाल करे  पर विरोध नहीं 

पड़ोसी से अपेक्षा
मदद करे पर मांगे नहीं 

बच्चे से अपेक्षा 
मांग करे पर रूठे नहीं 

साथी से अपेक्षा
सब सुने कुछ पूछे नहीं 

ऊपरवाले से अपेक्षा
सुख दे पर दर्द नहीं

जीवन का अंत है 
अपेक्षाओं का अंत नहीं 

......रजनीश ( २२.१०.२०२०, गुरुवार)

Friday, October 16, 2020

बचपन की यादें

बचपन की यादों में 
पिता जी की उंगलियां
जिनके सहारे चला करता था 

बचपन की यादों में 
पिता जी की गोदी 
जिसमे आराम से बैठा करता था

बचपन की यादों में
पिता जी की थाली 
जिससे निवाले लिया करता था

बचपन की यादों में 
पिता जी की सायकल 
संग जिसमें बैठ घूमा करता था

बचपन की यादों में 
पिता जी की पुस्तकें
घंटो जिन्हें में पढ़ा करता था 

बचपन की यादों में 
पिता जी का रेडियो
बड़े चाव से जिसे मैं सुना करता था

बचपन की यादों में 
पिता जी का प्यार 
जिससे अभिभूत सदा रहता था

बचपन की यादों में 
पिता जी की शाबाशी
विश्वास जिससे बढ़ा करता था 

बचपन की यादों में 
पिता जी का आशीष
धन्य जिसे पाकर हुआ करता था 

मैं बड़ा होता रहा 
पर बचपन संग चलता रहा 
बचपन की यादें जुड़ती गईं 
बचपन भी बढ़ता रहा

पिता जी का साथ 
जीवन भर छूटता ही नहीं 
पिता जी गर साथ हों 
बचपन कहीं जाता नहीं 

ना कभी बचपन खत्म होता 
ना ही बचपन की यादें 
बचपन की यादों का
कभी अंत नहीं होता 

बचपन की यादों में 
मेरी उम्र का हर पड़ाव है 
 हर उम्र में क्यूंकि 
 बच्चा ही रहा हूं मैं 
 
 ......रजनीश (१६.१०.२०२०)
         परम पूज्य पिता जी की पुण्य तिथि पर 

Thursday, October 15, 2020

वक्त बीतता गया

वक्त बीतता गया 
लम्हा दर लम्हा 
मैं कुछ जीतता गया 
कुछ भीतर रीतता गया 

वक्त बीतता गया 
लम्हा दर लम्हा 
मैं कुछ जोड़ता गया
कुछ पीछे छोड़ता गया 

वक्त बीतता गया 
लम्हा दर लम्हा 
मैं कुछ जुटाता गया 
कुछ यूं ही लुटाता गया 

वक्त बीतता गया 
लम्हा दर लम्हा 
मैं कुछ निभाता गया 
कुछ रिश्ते भुलाता गया

वक्त बीतता गया 
लम्हा दर लम्हा 
मैं कुछ अपनाता गया
कुछ मौके ठुकराता गया

वक्त बीतता गया
लम्हा दर लम्हा 
मैं सब को हंसाता गया 
कभी खुद को रुलाता गया 

वक्त बीतता गया 
लम्हा दर लम्हा 
मैं जीवन की बगिया
सींचता गया 
 वक्त बीतता गया 

..... रजनीश (१५.१०.२०२०, गुरुवार)

Monday, October 12, 2020

कुछ बातें इन दिनों की


जिंदगी रुक सी गई है
कदम जम से गए हैं 
एक वायरस के आने से
कुछ  पल थम से गए हैं 

कहीं  कब्र नसीब नहीं होती
कोई रातोरात जलाया जाता है
इंसानियत  शर्मसार होती है
उसे एक खबर बनाया जाता है 

कभी होती  नहीं हैं खबरें 
बनाई  जाती हैं
कभी होती नहीं जैसी
दिखाई जाती हैं 

जिसे समझा था दुश्मन
अल्हड़ बचपन का 
बन गया  लॉकडाउन  में
वो जरिया शिक्षण का

पास आने की चाहत
 पर दूर रहने की जरूरत
 किस ने कह दिया जिंदगी से
 मुसीबतें कम हो गई हैं ?

....रजनीश (१२.१०.२०२०, सोमवार)

Friday, October 2, 2020

मुसीबतें

रोज सोता हूं 
कुछ मुसीबतों को सिरहाने रख 
सुबह उठता हूं 
तो साथ हो लेती हैं मुसीबतें 
कुछ खत्म हो जाती हैं
कुछ नई जुड़ जाती हैं 
कुछ बनी रहती हैं साथ लंबे वक्त तक 
मुसीबतें भी रहा करती हैं 
सांसों , यादों और सपनों के साथ 

 मुसीबतें क्यों है इतनी
 एक जिंदगी में
 पग पग पर मुसीबतें 
 एक खत्म नहीं हुई 
 कि दूसरी शुरू
 जिंदगी जैसे बहता हुआ दरिया नहीं
 बल्कि मुसीबतों का पहाड़ हो
 मुसीबतें कुछ यूं जुड़ी रहती हैं 
 जैसे जनम जनम का नाता हो 
 
 
जिंदगी मिलने में मुसीबत
जिंदगी मिल जाने पर मुसीबत
जिंदगी के साथ मुसीबत
जिंदगी के  बाद मुसीबत

कभी धूप मुसीबत 
तो कभी छांव मुसीबत
कभी जंगल मुसीबत
तो कभी गांव मुसीबत 
 
कभी दिन का ना ढलना मुसीबत 
कभी दिन का ढल जाना मुसीबत
रास्ता ना मिलना एक मुसीबत 
कभी रास्ते का मिल जाना ही मुसीबत

एक मुसीबत हो तो मुसीबत 
कोई मुसीबत ना हो तो भी मुसीबत
मुसीबत हल ना होना एक मुसीबत
कभी मुसीबत का हल भी एक मुसीबत

कभी अकेली होती है मुसीबत
तो कभी उसके साथ सहेली
कभी बिन बुलाए चली आती है
कभी बुलाने से आती है मुसीबत

कभी कुछ मिल जाना मुसीबत 
कभी कुछ खो जाना मुसीबत
कभी साथ मुसीबत 
कभी अकेलापन मुसीबत

कुछ मुसीबतों का एहसास नहीं होता
कुछ मुसीबतों की आदत हो जाती है 
कुछ मुसीबतें जीने नहीं देती 
कुछ मुसीबतें जीना सिखा देती हैं

कुछ मुसीबतें झेल लेते हैं हंसते हंसते
कुछ मुसीबतों  से भागते हैं हम 
कुछ मुसीबतें खुशियां देती हैं
कुछ मुसीबतें रुला देती हैं

क्यूं होती हैं मुसीबतें 
ये सवाल ही एक मुसीबत 
फिर लगता है इतनी मुसीबतें है 
तो कोई मकसद तो होना चहिए इनका 

सोचता हूं ,क्या होता गर मुसीबतें ना होती 
जिंदगी एक मुसीबत बन जाती 
मुसीबत तो सांस लेने में भी है
मुसीबत नहीं तो सांस भी थमी

जीवन क्रिया है मुसीबत प्रतिक्रिया है 
जीवन गति मुसीबत प्रतिरोध है 
सांसों के अलावा जो जरूरी है 
जिंदगी के लिए वो है मुसीबतें
सांसें और मुसीबतें  जैसे चोली दामन 
बिना मुसीबतों के नहीं है जीवन 

नाम बुरा लगता है मुसीबत 
पर मुसीबतें बुरी नहीं 
मुसीबतें जरूरी है जिंदगी के लिए
दरअसल मुसीबत कोई मुसीबत ही नहीं !!

............रजनीश (०२ अक्टूबर, २०२०)

Sunday, September 27, 2020

कलम और वायरस

क्यूं नहीं लिखता आजकल ?
यही सोच रहा हूं 
इन दिनों 
कलम चलते चलते रुक जाती है
खो जाता है लिखने का जज्बा कहीं
खयाल ही खो जाते हैं
एक अजीब सा ठहराव 

जिंदगी तो वैसे ही चल रही है 
जैसे पहले थी 
पर इसके हर रंग  पर 
एक बदरंग परत चढ़ गई है 
हर स्वाद में एक कसैलापन आ गया है
जिंदगी के हर रस्ते में 
हर मोड़ पे , हर चौराहे में  
एक जैसे पत्थर बिखरे पड़े हैं 
हर भाव , हर जज्बात 
एक जगह पर जा के रुक जाते हैं 

वायरस के इस वक्त में 
जिंदगी का मतलब 
वायरस की बस्ती से 
बस किसी तरह बच के निकलना,  हो गया है
जैसे यही एक मकसद है जिंदगी का 

पर बहुत से ऐसे भी हैं 
जिनके लिए पेट और छत का सवाल आज भी है
और वो अपने आप को दांव पर 
आज भी लगा रहे हैं 
अपने पेट के लिए 
भूख हरा देती है वायरस के डर को
मजबूरी और जरूरतों का वायरस 
खतरनाक है कोरोना से भी 

गौर से देखता हूं तो
जिंदगी दिखती है 
अब भी चलते 
जिंदगी के रंग अब भी जिंदा हैं 
पत्थर हैं तो रस्ते भी हैं 
जिंदगी रुकी नहीं 
जिंदगी रुकती नहीं 
फिर कलम क्यूं रुके ?
तो चलने लगती है 
कागज के टुकड़े पर 

साथ जिंदगी के 
लिखना जारी रहेगा बदस्तूर 

…........रजनीश (२७.०९.२०२०, रविवार)




Friday, February 28, 2020

तलाश एक रास्ते की


कुछ दूर चला मैं
रास्ता अनजाना था 
लोग भी नए 
मौसम भी कुछ नया सा 

नए दरख़्त नई छांव
नई इमारतें नए गांव
रास्ता था मुझे चलना था 
रास्ते पर आगे बढ़ना था 

तो चलता गया 
मैं आगे बढ़ता गया
थका तो सुस्ता लिया 
कभी फिसला तो उठ गया
कभी रास्ता तो कभी लोग 
कभी मजबूरी कभी चाहत 
चलाते रहे मुझे 
मेरा चलना जारी था

फिर लगा इस रास्ते में तो 
बहुत से गड्ढे हैं चाल भी धीमी
पहुंच ही नहीं रहा कहीं 
लगा  गलत चुन लिया रास्ता 
 सोचा फिर से शुरू करूं
 इसे भूलूं कुछ बेहतर करूं 
 ढूंढ़ कर रास्ते का नया सिरा 
फिर वहीं से जहां से चला था 
 पर न मैं अब वो था
 न ही रास्ता वो था
 बदले से दरख्त बदली सी छांव
 बिगड़ती इमारतें बदला सा गांव 
 रास्ता भटकन से भरा 
 रास्ते में गड्ढे नहीं पर घुमाव थे
 तो बात बन न सकी
 फिर से शुरुआत हो न सकी

फिर वही पशोपेश
फिर वही चाहत
फिर वही उधेड़बुन
फिर वही तलाश

फिर ढूंढ़ता हूं एक रास्ता

........रजनीश (२८. फ़रवरी २०२०)

Saturday, February 22, 2020

समझ



न पाने में न होने में
 कीमत जानी है खोने में

जो बीत गई सो बात गई
अब रक्खा है क्या रोने में

 मिट्टी में  जो सोंधी खुशबू
वो कहां मिलेगी सोने में

काटो तो वक्त नहीं लगता
महीनों लगते है बोने में

पल भर में जो इक दाग लगे
उसे उमर बीतती धोने में

......रजनीश (२२ फरवरी २०२०)






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