तुम्हें जो खारा लगता है
वो सादा पानी होता है
समझते हो कि आँखों से
मेरा ये दिल टपकता है
मेरे आँसू क्या सस्ते हैं
गैरों के दर्द पर रोएँ
दिल नहीं दिखावा है
वही भीतर से रोता है
फंसा तो खुद में ही मैं हूँ
मुझे तो फिक्र अपनी है
परेशां खुद से ही मैं हूँ
तुम्हारी सुध मैं कैसे लूँ
मुझे फुर्सत कहाँ तुम्हारी
तकलीफ़ों पर मैं रोऊँ
मेरा करम मेरे सीने में
हर दिन दर्द पिरोता है
होता वो नहीं हरदम
नज़रों से जो दिखता है
छलावा है जहां, जिसमें
भरम का राज होता है
खेलते हो जब भी होली
किसी की सांस छीन कर तुम
लाल वो रंग नहीं होता
किसी का खून होता है
खुद को दोष क्या दूँ मैं
शिकायत क्या तेरी करूँ
मुझे हर कोई मुझ जैसा
खुद में खोया लगता है
था बनने चला जो ईंसां
ज़िंदगी की राहों पर
जानवर रह गया बनकर
हरदम अब ये लगता है
.....रजनीश (26.11.2011)
17 comments:
Beautiful poem with a eautiful picture
बहुत गहरा विश्लेषण
वाह ...बहुत बढि़या।
्बेहतरीन प्रस्तुति।
bahut hi badhiyaa ... her koi khud me khoya sa lagta hai
सब अपनी दुनियां में खोये हैं...बहुत भावपूर्ण और सटीक अभिव्यक्ति...
बेहतरीन शब्द समायोजन..... भावपूर्ण अभिवयक्ति....
काश समय औरों का मिलता,
मैं भी मन को सहला लेता।
बहुत उम्दा....वाह!!
कविता के भाव बहुत अच्छे लगे।
रजनीश भाई आप शब्दों के माध्यम से अपनी बात कहने में समर्थ हैं
behad khubsurat rachana badhai
ये कैसा उहापोह है ?
ये ज़िन्दगी ही छलावा है .....
sunder kavita man ko bhai
rachana
सचमुच हर कोई अपनी ही उधेड़बुन में लगा है.. दूसरों के दर्द की कहाँ फ़िक्र है...फ़िक्र करते हुए जो दीखते हैं वहाँ भी एक छलावा है... बहुत सुंदर कविता !
bahut khub...
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