Monday, November 29, 2010

उन्मुक्तता

 

021209 037

जब भी अपने में झाँका है,

पाया खुद को जकड़े और बंधे हुए ;

कहीं मैं बंधा, कहीं कोई बांधे मुझे,

जो मुझे बांधे , खुद बंधा है कहीं और भी

021209 214

बुनते है जाल सभी,

बांधते यहाँ -वहाँ , फिर कभी यहाँ तोड़ा वहाँ जोड़ा ,

तोड़ने जोड़ने की कश्मकश ,

इन सारे बंधनों की जकड़न से दूर ,

इन्हें अलग रखकर चलना , सोचा बस है ;

सपना तो हो ही सकता है ये अपने आप को खोलकर पूरा पूरा देखने का ....

No comments:

पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....