Saturday, August 6, 2011

लकीर

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कभी
एक लकीर खींची थी
मैंने जमीन पर
आज कोशिश की
उसे मिटाने की,
आज लड़ा उस लकीर से
अपनी जमीन पर गड्ढे
कर लिए मैंने
मिट्टी निकाली उस
गहराती लकीर पर डालने लगा
मिट्टी निकालते -निकालते...
 फिसल गया गड्ढे  में
 हाथ-पैर टूट गए
और लकीर गहराती रही ..
ये लकीर  ऊंची दीवार लगती है ..
अब उस लकीर से घिरा
लहूलुहान सोचता हूँ
आखिर खींची ही क्यूँ
ये लकीर मैंने
क्यों बनाई ये सीमा
लकीरें खींचने की ये लत
बहुत तकलीफ देती है,
हर बार दिल पर निशान पड़ते हैं
पर  क्या करूँ ,
मजबूर हूँ...
....रजनीश (05.01.11)

11 comments:

POOJA... said...

satya... wakai aaj ham ab bahut hi majboor hain... kheenchee gai lakeerein mitaai nahi jaa saktin...

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

लकीर खींचने की लत .. बहुत अच्छी अभिव्यक्ति ..

रश्मि प्रभा... said...

yahi lakiren to taklif deti hain ...

Rajesh Kumari said...

lakeer yani vibhajan ki lat vaastav me buri hai bure parinaam hi milte hain.aapki kavita bahut kuch kahti hui.achchi prastuti.

रचना दीक्षित said...

यूँ लकीर खींचने कि लत अगर कुछ सकारात्मक बदलाब ला सके समाज में तो सार्थक हो जाये जीवन.

vandana gupta said...

यही होता है लकीर कहीं भी खिंचे मिटाये नही मिट्ती।

विभूति" said...

बहुत ही खुबसूरत....

सागर said...

bhaut hi acchi abhivaykti....

Anita said...

लकीर खिंच जाती है कोई जानबूझ कर नहीं खींचता...और वास्तव में यह लकीर होती भी नहीं आभास मात्र होता है...

Dr (Miss) Sharad Singh said...

बहुत ही कोमल भावनाओं में रची-बसी खूबसूरत रचना...

Anonymous said...

Today is virtuous ill, isn't it?

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