यही सोच रहा हूं
इन दिनों
कलम चलते चलते रुक जाती है
खो जाता है लिखने का जज्बा कहीं
खयाल ही खो जाते हैं
एक अजीब सा ठहराव
जिंदगी तो वैसे ही चल रही है
जैसे पहले थी
पर इसके हर रंग पर
एक बदरंग परत चढ़ गई है
हर स्वाद में एक कसैलापन आ गया है
जिंदगी के हर रस्ते में
हर मोड़ पे , हर चौराहे में
एक जैसे पत्थर बिखरे पड़े हैं
हर भाव , हर जज्बात
एक जगह पर जा के रुक जाते हैं
वायरस के इस वक्त में
जिंदगी का मतलब
वायरस की बस्ती से
बस किसी तरह बच के निकलना, हो गया है
जैसे यही एक मकसद है जिंदगी का
पर बहुत से ऐसे भी हैं
जिनके लिए पेट और छत का सवाल आज भी है
और वो अपने आप को दांव पर
आज भी लगा रहे हैं
अपने पेट के लिए
भूख हरा देती है वायरस के डर को
मजबूरी और जरूरतों का वायरस
खतरनाक है कोरोना से भी
गौर से देखता हूं तो
जिंदगी दिखती है
अब भी चलते
जिंदगी के रंग अब भी जिंदा हैं
पत्थर हैं तो रस्ते भी हैं
जिंदगी रुकी नहीं
जिंदगी रुकती नहीं
फिर कलम क्यूं रुके ?
तो चलने लगती है
कागज के टुकड़े पर
साथ जिंदगी के
लिखना जारी रहेगा बदस्तूर
…........रजनीश (२७.०९.२०२०, रविवार)
3 comments:
जारी रहे लिखना। शुभकामनाएं। सुन्दर रचना।
बहुत सुन्दर
सही है, कोरोना काल में सब कुछ ठहर सा गया है पर समय अपनी गति से बढ़ता ही जा रहा है
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