Wednesday, October 24, 2012

रावण दहन

साल दर साल
हम करते हैं दहन
एक पुतले का
नाम दिया है जिसे रावण

लीला का मंच सजा
बना देते किसी को राम
जो अंत में करता है
रावण का काम तमाम

हर साल बढ़ती जाती
पुतले की ऊंचाई
जलाते हर साल
पर मिटती नहीं बुराई

पैदा हो जाता है
हर चिंगारी से एक रावण
क्यूँ है नाभि में अमृत अब भी
ढूंढो इसका कारण

दरअसल राम हैं अंदर
और है साथ में रावण
पर विभीषण नहीं बताता
अमरत्व का कारण

जब झांकोगे भीतर
और ढूंढोगे कारण
तब बंद होगी पुनरावृत्ति
और मर जाएगा रावण ...

रजनीश (24.10.2012)
विजयदशमी की हार्दिक शुभकामनाएँ ...


Wednesday, September 26, 2012

हम हैं !












एक अंकुर फूटा
और एक पौधे ने ली अँगड़ाई
एक कली खिली
अब खिल गई
सो खिल ही गई
एक पौधा निकल ही आया
बीज से बाहर

पौधा अब वापस बीज में
कभी नहीं जाएगा
बीज अब बीज रहा भी नहीं
बीज का यूं ना होना
पौधे के होने में समा गया

अब  है एक ही रास्ता
पौधे के पास
अब हवा में झूमे
धूप ले पानी पिये
और ऊपर उठता जाए
बाहें फैलाये ,
बस बढ़ता ही जाए
और बन जाए एक पेड़

एक पेड़
जो बदलता  पल पल
पर रहता है एक पेड़
अपने होने तक ,

हर पेड़ की अलग ऊँचाई
अलग चेहरा अलग चौड़ाई
पर सबका एक दायरा
वक्त में भी और वजूद में भी
पर बीज से ही बनता है हर पेड़
और बनता है सिर्फ पेड़ ही ,


गर कुछ पत्ते ज्यादा हों
बड़ें हो पत्ते फैली हों डालियाँ
कुछ तने अधिक मोटे
सुंदर फूल हों या लगे हों कांटे
पर पेड़ होता है सिर्फ पेड़
और कुछ नहीं
क्यूंकि पेड़ , पेड़ ही हो सकता है

होता है पेड़ झुंड में या अकेला 
पर देखो आसमान से
तो कोई एकाकी नहीं
पेड़ों से भरी पड़ी है धरा

एक पेड़ का पूरा जीवन
समाया है सांस लेता है
निर्जीव से दिखते एक बीज में,
अगर बीज बोया नहीं
तो एक पेड़  नहीं बन पाता कभी पेड़
बीज एक गुल्लक है
जिसमें होते है समय के सिक्के
जीतने सिक्के उतना समय
 गुल्लक का फूटना  है जरूरी

एक बीज नहीं तो पेड़ नहीं
पेड़ नहीं तो बीज भी नहीं
पर इस चक्र में ही है जीवन
पेड़ और बीज नहीं
तो धरा , धरा नहीं

हर पेड़ बीज नहीं देता
हर बीज नहीं बन पाता पेड़
पर हर बीज और हर पेड़
एक संभावना है होने की
और संभावना है तो है जीवन
बस होना ही  है सब कुछ
मैं यहाँ हूँ , तुम हो  यहाँ
हमारा यहाँ होना ही है सब कुछ
 जब तक हम हैं
तो  खत्म नहीं होती संभावना
और जब तक हम होते हैं
हम ख़त्म नहीं होते
हमारे होने में है सब कुछ
और बस हमारे यहाँ होने में,

तो मनाओ उत्सव यहाँ होने का
क्यूंकि मैं हूँ यहाँ
तुम हो यहाँ
हम हैं यहाँ
हम हैं ...
रजनीश ( 27.09.2012)
(अपने ही जन्म दिवस 27 सितंबर पर )

Sunday, August 26, 2012

डरी-डरी सी ज़िंदगी

डरी ज़िंदगी, आँखें नम हैं
अफवाहों के बाज़ार गरम हैं

कहीं है बारिश कहीं पे सूखा
कोई डाइट पर कोई है भूखा
विषमताओं के इस जंगल में
भटक रहे अपने कदम हैं

कभी कोयला कभी है चारा
घोटालों ने सभी को मारा
बचा खुचा महंगाई ले गई
क्या कहें बस  फूटे करम हैं

ये मेरा हक़ वो मेरा अधिकार
सब मिले मुझे मैं न जिम्मेदार
दूसरों पर  अंगुलियाँ उठाते
बड़े चतुर  मेरे सनम हैं

अब ये शहर  रहा नहीं मेरा
छोड़ चला मैं अपना बसेरा
डरी  ज़िंदगी , आँखें नम हैं
अफवाहों के बाज़ार गरम हैं
......रजनीश (26.08.2012)

Thursday, July 26, 2012

मैं जानता हूँ सब कुछ, फिर भी ...


मैं जानता हूँ
मेरी चंद ख़्वाहिशों के रास्ते
नक़्शे पर दिखाई नहीं देते,
मैं जानता हूँ
मेरे कुछ सपनों के घरों का पता
किसी डाकिये को नहीं,
मैं जानता हूँ
मेरे चंद अरमानों का बोझ
नहीं उठा सकते मेरे ही कंधे,
मैं जानता हूँ
मेरी तन्हाई मुझे ही
नहीं रहने देती अकेले ,
मैं जानता हूँ
मेरे कुछ शब्दों को
आवाज़ मिली नहीं अब तक,
मैं जानता हूँ
राह पर चलते-चलते
बहुत कुछ पीछे छूटता जाता है,
मैं जानता हूँ
कुछ लम्हे निकल जाते हैं
बगल से बिना मिले ही,
मैं जानता हूँ
बरस तो जाएगी पर
बारिश नहीं भिगोएगी कुछ खेतों को
मैं जानता हूँ ये सब कुछ,

मैं जानता हूँ सब कुछ...
फिर भी लगाए हैं कुछ बीज मैंने
फिर भी करता हूँ कोशिश मिलने की हर लम्हे से,
मैं जानता हूँ सब कुछ...
फिर भी लगा हूँ बटोरने रास्ते से हर टुकड़ा
फिर भी सँजोये रहता हूँ अनकहे शब्दों को जेहन में  
मैं जानता हूँ सब कुछ...
फिर भी कहता रहता हूँ तन्हाई से दूर जाने को
फिर भी देता हूँ डाकिये को अरमानों के नाम कुछ पातियाँ  
मैं जानता हूँ सब कुछ...
पर अक्सर नक्शों में ढूँढता हूँ
सपनों के वो रास्ते ...

मैं जानता हूँ
कि आस है मुझे कुछ करिश्मों की ….
.....रजनीश (26.07.12)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....