तकती रह गईं खिड़कियाँ धूप का आना ना हुआ
फंस के रह गई परदों में रात का जाना ना हुआ
दुनियादारी के खूब किस्से गली-गली चला करते है
कोशिश भी की पर कहीं ईमां बेच आना ना हुआ
चाहत हमें कहती रही दो उस सितमगर को जवाब
खुद की नज़रों में दिल से कभी गिर जाना ना हुआ
दिल पे चोट लगती रही अपना खून भी जलाया हमने
पर नादां नासमझ ही रहे थोड़ा झुक जाना ना हुआ
वक़्त हमें समझाता रहा दरिया के किनारे खड़े रहे
उलझे हुए टूटे धागों को पानी में छोड़ आना ना हुआ
माना है अपने हाथों में अपनी तक़दीर लिखते हैं हम
फिर भी कुछ मांगने ख़ुदा के दर ना जाना ना हुआ
....रजनीश ( 16.10.2011)
21 comments:
सुन्दर रचना....अर्थपूर्ण शेर
Bahut khoob
क्या खूब शेर कहे हैं. आभार.
बेहतरीन रचना।
दिल पे चोट लगती रही अपना खून भी जलाया हमने
पर नादां नासमझ ही रहे थोड़ा झुक जाना ना हुआ
बहुत खूबसूरत गज़ल
Really love the way u write :)
last verse was superb !!
bahut hi badhiya Ghazal...
सभी शेर एक से बढकर एक हैं।
बहुत खूबसूरत गज़ल ......
bahut achhi gazal
मतले की मौलिकता प्रभावित करती है। यह भाव भी अनूठा है, अभिव्यक्ति भी लाज़वाब।
उम्दा शेर हैं ..........
तकती रह गईं खिड़कियाँ धूप का आना ना हुआ
फंस के रह गई परदों में रात का जाना ना हुआ...बहुत खूब....
behtreen gazal...
lajabab......
....इसी कशमकश में गुजरती रही जिंदगी
मेरे दर पे आजतलक उसका आना न हुआ
बहुत उम्दा गजल !
behtareen ...especially the last one :))
♥
फंस के रह गई परदों में रात का जाना न हुआ …
वाह ! बहुत ख़ूब कहा !
रजनीश जी
कमाल करते हैं आप भी :) बहुत अच्छे !
दीपावली की अग्रिम बधाइयां !
शुभकामनाएं !
मंगलकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
खूबसूरत गज़ल ... बहुत दम है शेरों में ... ज़माने की बात करते हुवे ..
बहुत खूब ! बेहतरीन गज़ल..
great improvement rajneesh, this one is awesome. Abhay kumar
Post a Comment