हवा में हरदम ऊंचा उड़ता है
कभी जमीं पर चलकर देख,
फूलों का हार पहन इतराता है
कभी कांटे सर रखकर देख,
दौलत और दावतें उड़ाता है
कभी जूठन चखकर देख,
बस पाने की जुगत ही करता है
कभी कुछ अपना खोकर देख,
अपनी जीत के लिए खेलता है
कभी औरों के लिए हारकर देख,
जो नहीं उसके लिए ही रोता है
कभी जो संग उसके हँसकर देख,
बस किताबें पढ़ता रहता है
कभी चेहरों को पढ़कर देख,
औरों के रास्ते ही चलता है
कभी अपनी राह चलकर देख,
दूसरों के घर झाँकता रहता है
कभी अपने घर घुस कर देख...
......रजनीश (24.04.2013)
14 comments:
प्रेरणादायक कविता !
सिक्के में दोनों पहलू हों..
sahi baat...
बहुत सुन्दर.
अपनों को तो बहुत आजमाए ,कभी गैरों को भी आजमाँ के देख -बहुत सुन्दर.
डैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
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Khoob Kaha.....Behtreen Panktiyan
bahut badhiya
दूसरों के घर झांकता रहता है,
कभी अपने घर घुस कर देख
सुन्दर, वास्तिवकता से परिचित कराती सुन्दर कविता
दूसरों के घर झांकता रहता है,
कभी अपने घर घुस कर देख
सुन्दर, वास्तिवकता से परिचित कराती सुन्दर कविता
वाह..यह जनाब हैं कौन..शुरू में लगा राजनीतिज्ञ..पर अंत आते-आते तो कुछ अपनी सी ही बात लगी...
यशवंत जी ने सही सोचा....मुझे पढ़ने ये पढ़ने का अवसर तो इस लिंक की वजह से ही प्राप्त हुआ....शुक्रिया ....सुन्दर रचना..
bahut sunder
अपने अंदर झांकने का वक्त ही किस के पास है ?????
nice suggestions :)
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