सूरज से अपेक्षा
धूप दे पर लू नहीं
बादल से अपेक्षा
पानी दे पर बाढ़ नहीं
हवा से अपेक्षा
ठंडक दे पर आंधी नहीं
रास्ते से अपेक्षा
मंजिल दे पर छाले नहीं
धरा से अपेक्षा
जगह दे पर भूकंप नहीं
मित्र से अपेक्षा
सवाल करे पर विरोध नहीं
पड़ोसी से अपेक्षा
मदद करे पर मांगे नहीं
बच्चे से अपेक्षा
मांग करे पर रूठे नहीं
साथी से अपेक्षा
सब सुने कुछ पूछे नहीं
ऊपरवाले से अपेक्षा
सुख दे पर दर्द नहीं
जीवन का अंत है
अपेक्षाओं का अंत नहीं
......रजनीश ( २२.१०.२०२०, गुरुवार)
बचपन की यादों में
पिता जी की उंगलियां
जिनके सहारे चला करता था
बचपन की यादों में
पिता जी की गोदी
जिसमे आराम से बैठा करता था
बचपन की यादों में
पिता जी की थाली
जिससे निवाले लिया करता था
बचपन की यादों में
पिता जी की सायकल
संग जिसमें बैठ घूमा करता था
बचपन की यादों में
पिता जी की पुस्तकें
घंटो जिन्हें में पढ़ा करता था
बचपन की यादों में
पिता जी का रेडियो
बड़े चाव से जिसे मैं सुना करता था
बचपन की यादों में
पिता जी का प्यार
जिससे अभिभूत सदा रहता था
बचपन की यादों में
पिता जी की शाबाशी
विश्वास जिससे बढ़ा करता था
बचपन की यादों में
पिता जी का आशीष
धन्य जिसे पाकर हुआ करता था
मैं बड़ा होता रहा
पर बचपन संग चलता रहा
बचपन की यादें जुड़ती गईं
बचपन भी बढ़ता रहा
पिता जी का साथ
जीवन भर छूटता ही नहीं
पिता जी गर साथ हों
बचपन कहीं जाता नहीं
ना कभी बचपन खत्म होता
ना ही बचपन की यादें
बचपन की यादों का
कभी अंत नहीं होता
बचपन की यादों में
मेरी उम्र का हर पड़ाव है
हर उम्र में क्यूंकि
बच्चा ही रहा हूं मैं
......रजनीश (१६.१०.२०२०)
परम पूज्य पिता जी की पुण्य तिथि पर
वक्त बीतता गया
लम्हा दर लम्हा
मैं कुछ जीतता गया
कुछ भीतर रीतता गया
वक्त बीतता गया
लम्हा दर लम्हा
मैं कुछ जोड़ता गया
कुछ पीछे छोड़ता गया
वक्त बीतता गया
लम्हा दर लम्हा
मैं कुछ जुटाता गया
कुछ यूं ही लुटाता गया
वक्त बीतता गया
लम्हा दर लम्हा
मैं कुछ निभाता गया
कुछ रिश्ते भुलाता गया
वक्त बीतता गया
लम्हा दर लम्हा
मैं कुछ अपनाता गया
कुछ मौके ठुकराता गया
वक्त बीतता गया
लम्हा दर लम्हा
मैं सब को हंसाता गया
कभी खुद को रुलाता गया
वक्त बीतता गया
लम्हा दर लम्हा
मैं जीवन की बगिया
सींचता गया
वक्त बीतता गया
..... रजनीश (१५.१०.२०२०, गुरुवार)
जिंदगी रुक सी गई है
कदम जम से गए हैं
एक वायरस के आने से
कुछ पल थम से गए हैं
कहीं कब्र नसीब नहीं होती
कोई रातोरात जलाया जाता है
इंसानियत शर्मसार होती है
उसे एक खबर बनाया जाता है
कभी होती नहीं हैं खबरें
बनाई जाती हैं
कभी होती नहीं जैसी
दिखाई जाती हैं
जिसे समझा था दुश्मन
अल्हड़ बचपन का
बन गया लॉकडाउन में
वो जरिया शिक्षण का
पास आने की चाहत
पर दूर रहने की जरूरत
किस ने कह दिया जिंदगी से
मुसीबतें कम हो गई हैं ?
....रजनीश (१२.१०.२०२०, सोमवार)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....