Tuesday, January 22, 2013

इंकलाब



क्या बस कहने से आ जाएगा इंकलाब
क्या मोमबत्तियों में कहीं छुपा है इंकलाब
क्या एक जगह जुट जाने से आ जाएगा
क्या बाज़ार में मिलती कोई चीज़ है इंकलाब

क्या किसी घर में छुपा है इंकलाब
क्या चंद लोगों का गुलाम है इंकलाब
क्या सब कुछ तोड़ देने पर मिल जाएगा
क्या बस चेहरा बदल लेना है इंकलाब

क्या सिर्फ औरों से कुछ चाहना है इंकलाब
क्या लकीरें पीटने से आ जाता है इंकलाब
क्या दूसरों पर मढ़ देने से हो जाएगा
क्या दूसरों को बदल देना है इंकलाब

अब हो तुम किसी के गुलाम नहीं
सिर्फ अपनी ही मर्जी के मालिक हो
अब तोड़ने और मुखालफत करने से नहीं
सिर्फ खुद को बदलने से आएगा इंकलाब   
              ......रजनीश (22.01.2013)

Sunday, January 13, 2013

सूर्य वंदना



हे सूर्य ! तुम्हारी किरणों से,
दूर हो तम अब, करूँ पुकार ।
बहुत हो गया कलुषित जीवन,
अब करो धवल  ऊर्जा संचार ।

सुबह, दुपहरी हो या साँझ,
फैला है हरदम अंधकार ।
रात्रि ही छाई रहती है,
नींद में जीता है संसार ।

तामसिक ही दिखते हैं सब,
दिशाहीन  प्रवास सभी ।
आंखे बंद किए फिरते हैं...
निशाचरी व्यापार सभी ।

रक्त औ रंग में फर्क न दिखे,
भाई को भाई   न देख सके ।
अपने  घर में ही  डाका डाले,
सहज कोई पथ पर चल न सके ।

हे सूर्य ! तुम्हारी किरणों से,
दूर हो तम अब, करूँ पुकार ।
भेजो मानवता किरणों में,
पशुता से व्याकुल संसार ।
....रजनीश (15.01.11) मकर संक्रांति पर


मकर संक्रांति, लोहड़ी, पोंगल की हार्दिक शुभकामनाएँ । एक पुरानी रचना पुनः पोस्ट की है ।

Saturday, January 5, 2013

इक आस














एक रोशनी
बुझते बुझते
एक आग दे गई
दरिंदगी से लड़ती
एक आवाज़ दे गई

खो गई
कहीं आसमां में
इक राह दे गई
हैवानियत ख़त्म करने की
एक चाह दे गई

जूझती रही
बिना थके
दुनिया हिला गई
अत्याचार से लड़ने
कई दिल मिला गई

ना खत्म हो ये जज़्बा
ये सैलाब रुक ना जाए
इक शहादत से जली
ये मशाल बुझ न पाए... 
....रजनीश (05.01.2013)
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