Friday, July 19, 2013

क्या करूँ ?

क्या करूँ ?
क्या लिखूँ चंद लाइनें
उकेर दूँ जननियों का दर्द
निरीह कोमल अनजान मासूम
नन्ही जान की व्यथा
और नमक डाल दूँ थोड़ा
पहले ही असह्य पीड़ा में...

क्या करूँ ?
क्या लिखूँ दूसरी दुनिया से
और कोसूँ
एक तंत्र को जो बना
मुझ जैसे लोगों से ही
और थोप दूँ सारी जिम्मेवारी
आत्मकेंद्रित पाषाण हो चुकी  
अपरिपक्व लोलुप बीमार मानसिकता पर
खुद बरी हो जाऊँ
और भूल जाऊँ सब कुछ
वक्त की तहों मे
नंगी सच्चाईयों को दबा दबा कर...

क्या करूँ?
क्या लिखूँ विरोधी स्वर
जगा दूँ परिवर्तन की आँधी
और बदल दूँ केवल चेहरा अपने तंत्र का
जिसमें अब हो मैं और हम जैसे
वैसे ही लोग जो पहले भी थे...

क्या करूँ ?
नजरें ही फिरा लूँ
नज़ारा ही दूर रहे नजरों से
और मैं साँस लूँ बेफिक्र
कि ज़िंदगी तो यूं ही चलती है...

क्या करूँ ?
.
.
अब अगर ये प्रश्न है
तो बेहतरी के लिए
बेहतर यही है कि
खुद ही बदल जाऊँ....

रजनीश (19.07.2013)

Sunday, July 14, 2013

रंग और जंग


साफ़ नीले आसमान में
सफ़ेद चमकते उड़ते रुई से बादल
और बादलों से छन कर आती
सूरज की इठलाती सुनहली किरणें
किसी चित्रकार की जादुई तूलिकाओं की तरह
जमीन, पहाड़, जंगल, नदी, सागर पर चलती हैं
और शुरू हो जाता है रंगों का नृत्य
अठखेलियाँ खेलते नाचते रंग
तरह-तरह का आकार लिए
फूलों में, पेड़ों में , पक्षियों में, पशुओं में...
धरती पर फिरते , नदियों में तिरते, आसमां में उड़ते
अनगिनत रंगों का सम्मेलन ...
आनंद और खूबसूरती का एहसास
इस माहौल में थिरकते कदमों को सम्हालते
जेहन में कौंधते एक प्रश्न से गुफ़्तगू करता हूँ  
क्यूँ है रंगों का ये अद्भुत प्रयोजन ?
क्यूँ है ये इंद्र्धनुष ?
है क्या सिर्फ मुझे खुश करने के लिए ?
क्या ये अच्छे हैं सच में या मुझे लगते हैं अच्छे ?
फिर पूछा तो कहा एक लाल फूल ने
तितली के लिए है मेरा रंग
कहा पीले फूल ने
मैंने बदला लाल भेष
कि तितली पहुंचे मुझ तक भी,
कहा चटखते रंग लगाते एक चिड़े ने
कि बांधना चाहता है वो
इन रंगों की डोर से संगिनी को,
कोई खींचता अपना भोजन
एक रंग-बिरंगे पाश में,
कोई रंगों की चादर ओढ़
बचाता शिकारी से खुद को,
इस रंग भरे अनवरत नृत्य में
सौंदर्य के एहसास के साथ
दिखने लगी एक होड़, एक जुगत, एक तरकीब,
एक जंग, एक प्रतियोगिता
सब लड़ रहे अपनी-अपनी लड़ाई
अपने आप को बचाए रखने की....
सुंदरता इन रंगों में इन आकृतियों में नहीं
 इन आँखों में हैं जो नाचते देखती रहती हैं ,
इस लगातार चलती अस्तित्व की लड़ाई में
सौंदर्य, लगाव, आकर्षण
सबको बांधे रखते हैं मैदान में,
नहीं रुकता ये संग्राम कभी,
एक फूल की जगह लेता दूसरा
बहता और बदलता रहता है पानी
बदलते रहते है किरदार
पर रंग बने रहते हैं यहाँ , रंग नहीं बदलते ,
चलता रहता है खेल रंगों का ...रंगों की जंग ..
सौंदर्य से हटकर थोड़ा खिन्न हो जाता है मन
एक लंबी सांस ले दौड़ाता हूँ नज़र चारों ओर
और कदम फिर अपने आप थिरकने लगते हैं ....

....रजनीश (14.07.2013)

Monday, July 8, 2013

क्या है जीवन ?
















क्या है जीवन ?
हर घड़ी साँसे लेना
ताकि प्राण रहे
रक्त में शक्ति प्रवाहित हो
क्या है जीवन ?
हर दिन खाना
ताकि रक्त बने
अस्थि मज्जा पोषित हो
क्या है जीवन ?
हर दिन काम करना
ताकि अंग-प्रत्यंग स्फूर्त हों
क्या है जीवन ?
हर दिन विश्राम
ताकि शरीर तरोताजा रहे
हर दिन ध्यान
ताकि चित्त शांत रहे
क्या है जीवन?
अपने अस्तित्व की रक्षा
और अपना पुनरुत्पादन
क्या यही है जीवन ?
क्या इतना सरल और सीधा है समीकरण ?
लगता तो है , पर लगता है
ये है नहीं ऐसा ...
क्या है जीवन ?
मस्तिष्क का विकास ?
जीवन में मस्तिष्क का आगमन ...
और जीवन से बड़ी होती गई
जीवन की राह
अस्तित्व की रक्षा से बड़ा होता गया
अस्तित्व का प्रश्न ...
जीवन की राहों से
जीवन तक पहुँच पाना
कठिन होता गया
साध्य से ज्यादा हो गया
साधन का महत्व ...
मस्तिष्क का विकास ?
और वास्तविक अर्थों पर चढ़ गया
तर्क , कल्पना , भ्रम, लालसा
भय और महत्वाकांक्षा का मुलम्मा
धीरे-धीरे अस्तित्व की लड़ाई में
मस्तिष्क ने सब कुछ
क्लिष्ट और दुस्साध्य बना दिया
क्या यही है जीवन ?
और विकास के इन सोपनों पर
जीवन की परिभाषा
एक अबूझ पहेली बन गई  ...

...रजनीश ( 08.07.2013)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....