Wednesday, March 13, 2013

झूठे सपनों के पार

















है सूरज निकल पूरब से
 जाता हर रोज़ पश्चिम की ओर
पानी लिए नदियां हर पल
हैं मिलती रहती सागर में

बादल बरस बरस कर
करते रहते हैं वापस
जो धरती से लिया,
हर साल हरी हरी चादरें
ढँक लेती है धरती को इक बार
एक नृत्य हर वक्त
चलता रहता है
संगीत की लहरों पर

बदलते रहते हैं पत्ते
और बदलते पेड़ भी
देखती हैं बदलती फसलों को
खेत की मेड़ भी
ज़िंदगी हर पल लेती  सांस
फूटती कोपलों, पेड़ की डालों में
घोसलों, माँदों में पनपती असल ज़िंदगी
ना है ख्वाबों ना ख़यालों में

सब कुछ कितना नियत
कितना सरल
एक रंग बिरंगा चक्र
पर नहीं जाती मिट्टी की खुशबू
बंद नहीं होता चहकना
बंद नहीं होती पानी की कलकल
बंद नहीं होता पत्तों का हवा संग उड़ना
नहीं फीका पड़ता और
नहीं बदलता कोई भी रंग
सब कुछ वैसा ही खूबसूरत
रहा आता है समय की परतों में

पर  अंदर इस संसार के
है  संसार  और एक
बहुत अजीब और बहुत ही गरीब
जहां रुक जाया करता है  सूरज
सुबह नहीं होती कभी कभी
और कभी बहुत जल्दी आ जाती है शाम
जहां सावन में भी हो जाता है पतझड़
जहां दिन के उजाले में भी अक्सर
नहीं धुल पाता रात का अंधेरा
जहां नृत्य में भी बस जाता है शोक
जहां से  नज़र नहीं आता आँखों को
कायनात का खूबसूरत खेल
जहां नहीं सब कुछ सरल और सीधा
जहां है बहुत कुछ बनावटी
जहां बदरंग लगते नज़ारे
जहां गीत नहीं देता राहत

अजीब सी बात है
जब भी इस झूठी चहारदीवारी
को लांघने की कोशिश करता हूँ
कभी खुद लौट जाते हैं पैर
कभी कोई पकड़कर
खींच लेता है वापस
और मैं खड़ा  इस गरीब
और झूठे संसार से
झांक-झांक बाहर
यही सोचता हुआ हैरान हूँ
कि टूट क्यूँ नहीं जाती
ये मोटी-मोटी दीवारें
ताकि सामने के उस असली संसार से
महक लिए ठंडी मंद बयार
मुझ तक भी आ पहुँचती
और हर सुबह सुबह ही होती
और हर शाम होती एक शाम ...
रजनीश (13.03.2013)  

Sunday, March 3, 2013

खेल इंसान का


राह तो बस राह है 
उसे आसां या मुश्किल बनाना  
इंसान का खेल है 

तकदीर तो बस तकदीर  है 
उसे बिगाड़ना या  बनाना 
इंसान का खेल है

पत्थर  तो बस पत्थर  है 
पत्थर को भगवान बनाना 
इंसान का खेल है 

फूल तो बस फूल है 
फूल  सेज़ या सिर पर चढ़ाना  
इंसान  का खेल है 

यार तो बस यार हैं 
यार को जात  रंग में ढालना 
इंसान का खेल है 

चाहत तो बस चाहत है 
उसे प्यार या नफ़रत बनाना 
इंसान का खेल है 

दीवारें तो बस दीवारें हैं 
उनसे घर या कैदखाने बनाना 
इंसान का खेल है 

आग तो बस आग है 
आग में जलना जलाना 
इंसान का खेल है 

पैसे तो बस पैसे हैं 
उन्हें कौड़ी या खुदा बनाना 
इंसान का खेल है 

धरती तो बस धरती है 
इसे ज़न्नत या जहन्नुम बनाना 
इंसान का खेल है 

इंसान तो बस इंसान है 
उसे हिन्दू या मुसलमान बनाना 
इंसान का खेल है 

......रजनीश (03.03.2013)
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