Friday, July 29, 2011

कश्मकश
















कभी विचार करते हैं क्रंदन ,
और फिर मैं लिखता हूँ,
कभी सोच को जीवन देता हूँ,
कभी लिख कर सोचने लगता हूँ लाइनों का भविष्य ,
कभी लिखता हूँ और कुछ उतरता नहीं ख्यालों में ,
कभी सोचता हूँ तो कलम फंसी रह जाती है
लाइन पर बने गड्ढे में ,

मैं कभी महसूस करता हूँ
किसी क्षण का कंपन,
और वो जाकर बैठ जाते हैं लाइनों की दहलीज पर ,
कभी चलती है कलम बिना किसी झंकार के,
कभी एहसास  बयान हो जाता है,
कभी लिखते हुए महसूस होता है स्याही का नृत्य,
कभी लाइनों से छिटक हाथ पर भी आ जाती है स्याही ,

कभी महसूस होता है कुछ,  और कलम रुक जाती है,
कभी जो सोच में घटता है , एहसास में नहीं होता,
कभी एहसास का चेहरा ही नहीं पढ़ा जाता ,
कभी होता है सोचने का एहसास,
कभी सोच, सिर्फ सोच रह जाती है संवेदना शून्य,
और कभी एहसास हो जाते हैं बेमानी,

कभी सोचता हूँ कुछ, लिख जाता हूँ कुछ और,
कभी लिखते-लिखते, एहसास ही बदल जाता है,
कभी शब्दों पर फैल जाती है स्याही ,
कभी लाइनें ही टकरा जाती हैं आपस में ,
लड़ बैठती हैं और शब्द भाग जाते हैं ...

इसी कश्मकश में रोज
मैं किसी कविता का करता हूँ नामकरण
या फिर उसे देता हूँ  मुखाग्नि....
.....रजनीश (15.12.10) 

Wednesday, July 27, 2011

उन्मुक्तता


021209 037











जब भी अपने में झाँका है,
पाया खुद को जकड़े और बंधे हुए ;
कहीं मैं बंधा, कहीं कोई बांधे मुझे,
जो मुझे बांधे , खुद बंधा है कहीं और भी
बुनते है जाल सभी,
बांधते यहाँ -वहाँ , फिर कभी यहाँ तोड़ा वहाँ जोड़ा ,
तोड़ने जोड़ने की कश्मकश ,
इन सारे बंधनों की जकड़न से दूर ,
इन्हें अलग रखकर चलना , सोचा बस है ;
सपना तो हो ही सकता है ये अपने आप को खोलकर पूरा पूरा देखने का ....

Tuesday, July 26, 2011

व्यथा

IMAG0638


















मैंने देखी हैं ,एक जोड़ा आँखें ,
उम्र में छोटी, नादां, चुलबुली,
कौतूहल से भरी ,
पुराने चीथड़ों की गुड़िया
 खरोंच लगे कंचों
 पत्थर के कुछ टुकड़ों
 और मिट्टी के खिलौनों में बसी
 कुछ तलाशती आँखें
 भोली सी, प्यारी सी ,  
 दूर खड़ी , मुंह फाड़े , अवाक सब देखतीं हैं
 ... कितनी  हसीन दुनिया                                            
इन आँखों मे बनते कुछ  आँसू चाहत  के      
निकलते नहीं बाहर
और  आँखें ही अपना लेती हैं  उन्हें ..               
और मुड़कर घुस जाती हैं
 फिर उन चीथड़ों पत्थरों और काँच के टुकड़ों में                   
........रजनीश

Saturday, July 23, 2011

लंच

DSCN3280
रोज शुरू होता है
एक पसीने का सफर
पैरों तले जमीन और
गुजर बसर के लिए
वहीं से जहां कल छोड़ा था
छोड़ा था भी या नहीं
मुश्किल है कह पाना ...
पैसे बनाने की
एक बड़ी मशीन के पुर्जे
बने हम चलते रहते हैं
पेट के लिए करते हैं ये सब
वक़्त  हमसे होकर गुजरता रहता है
छोड़कर अपने निशान बदन पर ...
और रोज़ लंच का डिब्बा
पड़ा  रहता है त्यक्त अवांछित
एक कोने में
काम के बोझ में दबे-दबे
दोपहर में खोलकर डिब्बा
उसमें रखी  रोटी और  थोड़ा सा प्यार
एक मजबूरी की तरह खाते हैं
इस आपाधापी में
रोटी-वोटी पेट में चली जाती है
प्यार-व्यार छिटककर बस जूठन रह जाता है
जीभ चखती नहीं है
दिलोदिमाग की भूख मिटती नहीं और
डिब्बा बस खाली हो जाता है
एक काम  की तरह ,
हम कभी नहीं होते खाने के साथ
कुछ इस तरह खो जाते हैं रास्ते में
कि मंज़िल का पता ही भूल जाते है
कहीं जाना होता है  कहीं और पहुँच जाते हैं
कमाते हैं खाने के लिए
और खाना भूल जाते हैं
.... रजनीश (23.07.2011)

Friday, July 22, 2011

बदलाव

DSCN1443










है जिंदगी  वही ,ज़िंदगी के मायने बदल गए,
हैं चेहरे वही पुराने पर आईने बदल गए॰

है सूरज वही है चाँद वही , है दिन वही है रात वही,
है  दुनिया वही , पर दुनियादारों के मिजाज बदल गए॰

है साकी वही है शराब वही, है पैमाना औ मयखाना वही 
है हमप्याला वही , नशे के पर अंदाज बदल गए॰

वही पैर वही जिस्म, वही ताकत वही हिम्मत,
है दौड़ का जज़्बा वही, पर दौड़ के मैदान बदल गए॰

है शोहरत वही, है शराफत वही, है इज्ज़त औ मोहब्बत वही,
कायम रही है मंजिलें पर रास्ते बदल गए॰

है सच वही है झूठ वही, है पुण्य वही है पाप वही,
है  धरम औ इंसाफ वही, पर इनके तराजू बदल गए ,
.......रजनीश (13.12.93)

Wednesday, July 20, 2011

एक नई कहानी

DSCN6815
हुई ख्वाबों ख़यालों की बातें पुरानी
सुनाता हूँ तुमको आज की है कहानी

अब होते नहीं प्यार में ढाई आखर
न मजनूँ परवाना न लैला दीवानी

खो गया  बचपन कंक्रीट के जंगलों में
जमीन से अब जुड़ी नहीं है जवानी

हमाम में सब नंगे आँखों पर पट्टी है
ईमान की बस्ती में  छाई है वीरानी

होली रोज़ लहू की   मौत के पटाखे  चलें
त्यौहारों का शहर देख होती है हैरानी

न शराफत  न गैरत न इज्जत न मुहब्बत
हैवानियत का मज़ा  इंसानियत की है परेशानी

......रजनीश (19.07.2011)

Saturday, July 16, 2011

मैं ( पुन:)

माफ कीजिएगा , पुन: एक पुरानी पोस्ट ...

क्या ये मैं हूँ,mysnaps_diwali 019
ये तो प्यार की चाहत है,
जो करती है प्रेम !
ये देने वाला मैं नहीं ,
ये तो इच्छा है , पाने की;
ये मैं नहीं ,
बेबसी जो करती है गुस्सा;




mysnaps_diwali 005ये मैं नहीं ,
विचार कर रहे संघर्ष;
ये मैं नहीं,
डर है, जो दिखाता अपनापन ;
ये मैं नहीं
है  कमजोरी , जो करती है हिंसा



021209 212

ये मैं नहीं ,
अज्ञान है जो करता विवाद;
ये मैं नहीं ,ये तो  दंभ है
जो लड़ता है किसी और दंभ से ...
ये मैं नहीं ,
ये अधूरापन है जो
करता है ईर्ष्या,

mysnaps_diwali 006

ये मैं तो नहीं ,
खुश होती केवल इंद्रियां ,
ये मैं  नहीं,
तुम्हें बुरी लगती है
मेरी बोलने की आदत;


 DSCN1674

तुम्हें मुझसे नहीं ,
ईर्ष्या है  विजय से;
तुम मुझसे नहीं,
नाराज हो दंभ से;
ये मैं नहीं,
शायद तुम्हें पसंद है  सादगी ,



DSCN1678ये मैं नहीं ,
शायद  संगीत तुम्हें नचाता है,
ये मैं नहीं,
तुम्हारा विरोध है परिस्थिति से,
ये मैं नहीं ,
तुम शायद खफा हो किस्मत से,



IMAG0487
ये मैं नहीं ,वो मै नहीं,
फिर मैं हूँ कौन?
मैं क्या हूँ...
याने  ...रजनीश!!
नहीं...ये तो संज्ञा है, एक संबोधन ...
भावनाओं /परिस्थितियों की एक गठरी का  नाम है
'पर ये सिर्फ मेरी तो नहीं तुममें भी हैं , तुम्हारी भी हैं ....
फिर मैं कहाँ हूँ ?
और बाई-दि-वे, तुम कहाँ हो ??
.....रजनीश (06.12.10)

Thursday, July 14, 2011

अपना सा


आज अपनी एक पुरानी पोस्ट की हुई एक कविता पेश कर रहा हूँ 
बहुत पहले लिखी थी 
शायद आपने नहीं  पढ़ा होगा इसे ...

DSC00506
लगा था कोई,
अपना सा / हिस्सा खुद का लगा था....
देखा था उसे -भीड़ में /
नया था पर लग रहा पुराना था/
जैसे खोया था कभी पहले कहीं
अब आ मिला था ....
जैसे टूटा था कभी पहले कहीं ,
अब आ जुड़ा था
अपना ही था  या दूसरा अपने जैसा,
या फिर था कोई हिस्सा किसी सपने का
पर लगा था अपना /
ताजिंदगी हिस्से रहते हैं बिखरते / टूटते / जुड़ते / मिलते / बिछुड़ते .....
 टूट कर गिरे बिखरे हिस्से एक जगह नहीं मिलते
कभी या कहूँ अक्सर कहीं पर भी नहीं .....
सारे हिस्से कभी नहीं होते साथ साथ   ,
कुछ अनजाने हिस्सों से भी जुड़ना होता है सफर में ...
हिस्से बटोरने और जोड़ने में
खुद बंटते जाते हैं हम  हिस्सों में ,
और ढूंढते रहते हैं हिस्सा कोई अपना .....
DSC00486
....रजनीश

Monday, July 11, 2011

सुबह की चाय

DSCN4544
हर रोज़ सुबह
दरवाजे पर संसार
पड़ा हुआ मिलता है
चंद पन्नों में
चाय की चुस्कियों में
घोलकर   कुछ लाइनें
पीने की आदत सी हो गई है
और साथ इस एहसास को जीने की
कि कुछ बदला नहीं
सब कुछ वैसा ही है
जैसा पिछली सुबह था
बासे पन्ने
होता वही है जो पहले हुआ था
संवाददाता बदलता  है
कल जो वहाँ हुआ था
आज यहाँ होता है
बस हैवानियत घर बदलती है
इन्सानियत एक कोना तलाशती है
कुछ पल ही लगते हैं 
इन बासे कसैले पन्नों को
रद्दी में तब्दील होने में
दुर्घटना दुष्प्रचार 
भ्रष्टाचार  व्यभिचार
कहीं आतंक कहीं आक्रोश
कहीं टूटा  सपना कहीं  बिछोह
थोड़ी खुशी ढेर सारा ग़म
कोई जलजला कहीं विद्रोह
खबरें रोज़ जनमती रोज़ मरती हैं
रहती हैं दफन इन पन्नों में
जब गठरी बड़ी हो जाती है
रद्दी वाले की हो जाती है
और हर बार टोकरी देख
सोचता हूँ क्या यही है संसार
जो है इन अखबारों में?
क्या करूँ जो इन पन्नों का
चेहरा बदल जाए
निकले इनमें से प्यार की महक
जिन्हें पढ़कर चेहरा खिल जाए
और सुबह सुबह
चाय की चुस्कियों  में
कुछ मजा आ जाए.... 
...रजनीश (11.07.2011)

Saturday, July 9, 2011

अंधेरा

DSCN3980
एक अंधेरा ,
मेरी आवाज
जब देख नहीं पाती तुम्हें ,
जब नहीं सुनाई देती मुझे
बातें दीवारों पर
लिखी इबारतों की,
जब हर वो चीज खो जाती है
जो दिला सके
तुम्हारे होने का एहसास ,
रात ज्यों घुस आती है कमरे में
छोड़कर चाँद-तारे
कहीं दूर  वादियों में,
आईना हो जाता है जब अंधा,
नज़रें दे जाती हैं धोखा,
अंधेरा छा जाता है
रोशनी के हर एक ठिकाने पर,
मैं कर लेता हूँ बंद आँखें
और एक छोटी सी लौ
कहीं मन से उतर कर
बैठ जाती है अंदर आंखों के करीब
दिखने लगता है पूरा मंजर
और जन्म होता है रोशनी का

मैं हूँ एक अंधेरे की परत
जो  फैली हो गर मुझसे बाहर
कुछ भी नज़र नहीं आता 
अंधेरे के सिवा
"मैं" ही है अंधेरा
इसे हर जगह से खुरचकर समेटकर
आँखों के अंदर बंद कर लेता हूँ
अंधेरा नहीं रह जाता है
एक अंधेरा रोशनी में भी रहता है ...
और बंद आँखों से वो दिखता है
जो रोशनी में छुपा रह जाता है ...
...रजनीश (09.07.2011)

Wednesday, July 6, 2011

वक़्त से बात

DSCN3908
बस एक ही
काम है अपना
वक़्त के साथ चलना
पर उसके कंधे से मेरा कंधा
कहाँ मिला ?
हम दोनों ही चलते हैं
उसका हाथ
मेरे हाथों में जरूर है
पर मेरा बाकी जिस्म
है बहुत पीछे ,
महसूस होता है ये फासला
हाथ में जीते हुए दर्द से
खींचता है वक़्त , देता है आवाजें
कहता हूँ , वक़्त तुम ही कुछ तेज  हो
वक़्त कहता है
हाथ छूटा तो फिर न कहना
अगर मैं पहुँच गया
तुमसे पहले उस ठिकाने पर
तो फिर तुम्हें खींच न पाऊँगा
तुम्हारी अधूरी कहानी
संग ख़त्म हो जाऊंगा
मैंने कहा मैं क्या करूँ
तुम ही मुझे इस कंटीले
ऊबड़ खाबड़ रास्ते पर ले आए
तुम खुद आगे निकल गए
ऐ  वक़्त तुम रुकते नहीं हो
किसी के लिए
मेरी भी कोई दुश्मनी नहीं तुमसे
फिर ये खींचातानी किस लिए
तकलीफ़ तो तुम्हें भी होती होगी
इन पथरीले फिसलन भरे रस्तों में
मत रुको मैं नहीं लड़ूँगा
पर अब रास्ता मैं बनाऊँगा
और जहां तक चल सकूँ
अब तुम होगे मेरे साथ
तुम्हारी पहचान मुझसे है
तुम मेरा वक़्त हो
बहुत हो गया
अब मैं तुम्हें मंज़िल दूँगा ...
...रजनीश ( 05.07.2011 )
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....