Thursday, May 31, 2012

हाइटेक शायरी



(हाइटेक जमाने पर मेरे लिखे कुछ पुराने शेर.... )
(1)
मेरी दोस्ती पर, इतना एतबार करिए,
गर मिस करते हैं , मिस्ड कॉल  करिए !
(2)
हैं वो सामने, उनकी  बेरुख़ी को क्या कहिए ...
हमसे कहते हैं कि  'कवरेज़ एरिया' से बाहर हो !
(3)
अब उसके दर तक, कोई रास्ता नहीं जाता ,
अफसोस कि वो 'नंबर' अब मौजूद नहीं हैं ...
(4)
ये दिल है बेकरार , कहीं लगता नहीं ,
बोर ये होता है, जां 'रिमोट' की जाती है...
(5)
हर बार की तरह,  वो कल भी मुझसे रूठ गया,
उसे मनाने  मैंने, फिर से एसएमएस किया...
(6)
कभी दिखा नहीं, पर  होगा वो चाँद सा मुखड़ा ,
एक आरजू है दिल में , हम 'चैट' किया करते हैं ...
(7)
दिल की आवारगी भी क्या-क्या जतन करती है ,
उसने मोबाइल में दो-दो 'सिम' लगा रक्खा है ...
(8)
खो गए थे वो, इस दुनिया की भीड़ में कहीं,
फ़ेस-बुक ने वो हाथ, मेरे हाथों पे रख दिया ...
(9)
सुना था उसकी दुनिया में, चिड़िया चहकती है,
पर यहाँ  , दोपाया इंसान ट्वीट  करता है ...
.....रजनीश (18.02.2011)
अगर पसंद आए तो बाकी फिर कभी !!

Wednesday, May 30, 2012

अहसान गर्मी का...



(एक पुरानी कविता पुनः पोस्ट की है ...)


उतरने लगी है किरणें
सूरज से अब आग लेकर
जबरन थमा रहीं हैं तपिश
हवा की झोली में ,
सोख रहीं हैं
हर जगह से  बचा-खुचा पानी
छोड़  कर अंगारे
जमीं  के हाथों में ,

पर कलेजे में  है मेरे एक ठंडक
हूँ मैं संयत, मुझे एक सुकून है ...
क्यूंकि किरणें बटोरती हैं पानी
छिड़कने के लिए वहाँ,
जिंदा रहने को कल
बोएंगे हम कुछ बीज जहां...
सींचने जीवन,  असंख्य नदियों में
किरणें बटोरती हैं पानी...

मैं  बस बांध लेता हूँ
सिर पर एक कपड़ा,
घर में  रखता एक सुराही ,
जेब में  एक प्याज भी ,
और  करने देता हूँ  काम
मजे से किरणों को,

सोचता हूँ ,मेरे अंदर
सूखता एक और पानी है
जो काम नहीं  इन किरणों का
फिर वो कहाँ उड़ जाता है ?
दिल की दीवारों और आँखों को
चाहिए बरसात भीतर की
जो ज़िम्मेदारी नहीं इन किरणों की
इसका इंतजाम  खुद करना होगा
वाष्पित करना होगा घृणा, वैमनस्य, दुष्टता ...
तब  प्रेम भीतर बरसेगा...
...।रजनीश (06.05.2011)

Monday, May 28, 2012

चेहरों का शहर














( अपनी एक पुरानी कविता पुनः पोस्ट कर रहा हूँ ....)

एक चेहरा
जो सिर्फ एक चेहरा है मेरे लिए
दिख जाता है अक्सर
जब भी पहुंचता हूँ चौराहे पर,
एक चेहरा हरदम सामने रहता है
चाहे कहीं से भी गुज़रूँ

कोई चेहरा होता है अजनबी पर
लगता जाना पहचाना,
कभी चलते चलते मिल जाता है
कुछ नई परतों के साथ
कोई चेहरा जो दोस्त था,
कभी ऐसा  चेहरा मिल जाता है
पुराना जो दोस्त न बन सका था

कोई चेहरा ऐसा जिसे मैं पसंद नहीं
कोई ऐसा जो मुझे न भाया कभी
कुछ चेहरे कभी ना बदलते और
हैं हरदम बदलते हुए चेहरे भी
चेहरों पर चढ़े चेहरे मुखौटे जैसे
चेहरों से उतरते चेहरे नकली रंगों जैसे

हर चेहरे में एक आईना है
हर चेहरा अनगिनत प्रतिबिंब है
अगर कोई और देखे तो
वही चेहरा दिखता है कुछ और
हर गली चेहरों की नदियां
हर चौराहा चेहरों का समंदर है

अंदर बनते बिगड़ते खयालात
जागते सोते जज़्बात
सभी जुड़े चेहरों से
सूनी वादियों में भी दिख जाता
कोई चेहरा
बादलों , समुंदर की लहरों ,ओस की बूंद
और आँखों से टपकते मोती में भी चेहरे

एक चेहरा दिखता आँखें बंद करने पर
( एक चेहरा नहीं दिखता आंखे खुली होने पर भी !)

मैं ही हूँ इन चेहरों मैं
तुम भी हो इन चेहरों मैं
मैं एक बूंद नहीं चेहरों की नदी हूँ
नदी ही क्यूँ समुंदर हूँ
और तुम भी

बिना चेहरों के न भूत है न भविष्य
न हर्ष है न विषाद
न कुछ सुंदर न वीभत्स
और वर्तमान भी  शून्य है
अगर चेहरे नहीं तो
  न मैं हूँ न तुम
...रजनीश (24.05.2011)

Sunday, May 13, 2012

ये दिन...











एक दिन  बीतकर
चला जाता है
डायरी के पन्नों  पर
और एक दिन
बीतता है
बस पन्ने पलटते..

दिनों की लंबाई
नहीं होती एक सी
हर दिन  होकर गुजरता  है
उसी सड़क से
पर सड़क कभी लंबी
और कभी छोटी
हो जाया करती है

कभी पसीने के साथ सूखता है दिन
और कभी आसुओं से भीगता है
कभी आधियों में
उड़ जाता है
सड़क से बहुत दूर
और कभी बरसते जज़्बातों
से आई बाढ़ में बह जाता है

ना कभी सूरज और
ना ही कभी उसकी धूप
एक जैसी मिलती है
सड़क पर
दिन का चेहरा भी
धूप के साथ ही बदलते हुए
कैद किया है अपने जेहन में
कितना बदलता है दिन ..
पर इनकी शक्ल याद रह जाती है

कई बार इसे सिर्फ खिलखिलाते देखा
और ये कभी गुमसुम,
तनहाई की चादर ओढ़े
ठिठुरते हुए गुजर गया
मौसम की मार से
सड़क में भी कभी धूल कभी गड्ढे
कभी उतार कभी चढ़ाव
बनते बिगड़ते रहते हैं
और बदलती रहती है दिन की तक़दीर

एक दिन गुजारते गुजारते कभी
महीनों निकल जाते हैं
और एक दिन रोके नहीं रुकता
कई दिनों की सूरत
दुबारा देखने के लिए तरसता हूँ
और कुछ दिन वापस लौट आते हैं
चल कर उसी सड़क से मेरी ओर बार-बार

जैसे भी हों इन बीतते दिनों
की याद सँजोये हूँ
और मेरे अंदर अभी भी
सांस लेते हैं ये टुकड़े वक्त के
जब मिलोगे तो
बैठकर करेंगे
हम बातें ढेर सारी
 इन दिनों की ...
....रजनीश (13.05.2012)

Friday, May 4, 2012

भ्रष्टाचार महिमा



बार बार करें यातरा, रह रह रणभेरी बजाय  
पर भ्रष्टाचारी दानव को, कोई हिला ना पाय  

कहीं गड़ी है आँख, तीर कहीं और  चलाय 
पर भ्रष्टाचारी दानव की, सब समझ में आय 

बेदम या दमदार बिल, में क्यूँ रहते उलझाय  
गइया कोई भी किताब, पल में चट कर जाय  

हम कर लें तो भ्रष्ट हैं, वो करे संत कहलाय  
अब क्या है भ्रष्टाचार, ये प्रश्न न हल हो पाय  

भरते जाते सब जेल, तिलभर जगह बची न हाय 
भ्रष्टाचार बाहर खड़ा, देखो मंद मंद मुसकाय

.....रजनीश (04.05.12)

Tuesday, May 1, 2012

बहता पसीना











बहता है पसीना
तब सिंचती है धरती 
जहां फूटते है अंकुर 
और फसल आती है 

बहता है पसीना 
तब बनता है ताज 
जिसे देखती है दुनिया
और ग़ज़ल गाती है 

बहता है पसीना 
तब टूटते है पत्थर 
चीर पर्वत का सीना 
राह निकल आती है

बहता है पसीना 
तब बनता है मंदिर 
चलती है मशीनें 
जन्नत मिल जाती है 

जो बहाता पसीना 
जो बनाता है दुनिया 
उम्र उसकी गरीबी में 
क्यूँ निकल जाती है 

....रजनीश (01.05.2012)
अंतर्राष्ट्रीय श्रम दिवस पर 
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....