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Thursday, June 1, 2017

मन, तू रहता है कहाँ

ओ प्यासे
खो जाने वाले
बिना ही बात 
मुस्कुराने वाले
मन , तू रहता है कहाँ
ओ पगले
रुलाने वाले
जब-तब
मदहोश हो जाने वाले
मन, तू रहता है कहाँ
ओ भंवरे
खूब बहकने वाले
प्यार के गीत पर
चहकने वाले
मन, तू  रहता है कहाँ
ओ झूठे
बहकाने वाले
मंदिर भी
कहलाने वाले
मन, तू रहता  है कहाँ
ओ बच्चे
सब कुछ चाहने वाले
सीमा -रेखाएँ लांघने वाले
मन, तू रहता है कहाँ
मन तू आखिर है कहाँ 
मुझसे मुझे चुराने वाले
बस में मेरी न आने वाले 
भला-बुरा दिखलाने वाले
ओ आईना कहलाने वाले 
सच है गर यारी हमारी 
बता देह में जगह तुम्हारी
आँखे तो बस
देखती हैं प्यार से
कान सुनते बस धड़कन
जुबां सुनाती बातें
हाथ पकड़ते कम्पन
हर अंग तुम्हारी चुगली करता
तू कहीं तो है ये हरदम लगता
मन, तू रहता है कहाँ
ढूंढते-ढूंढते थक गया मैं
भीग गया पसीने में
भेजे से तो बैर है तेरा
क्या रहता है तू सीने में
पर सीने में तो दिल है
उसका जीने से सरोकार
वो तो बस दे रहा
लहू को रफ्तार
वहां कहाँ है
गंगा-जमुना
वहां तो बस रक्त है
जान ही लूंगा
भेद मैं तेरा
अभी भी काफी वक्त है 
  ...........रजनीश  (01/06/17)

Sunday, March 2, 2014

झील का दर्द


बैठा था एक पहाड़ी पर
सामने सोई हुई दिखी
नि:शब्द शांत झील
देखकर कोशिश कर रहा था मैं
टटोलने की -अपने भीतर की खामोशी

एक कंकण अनायास
उछाल दिया झील की तरफ
झील के चहरे पर फैली
शिकन देखी मैंने
पर कंकण कहाँ चला गया
झील से टकराकर तल में
आँखें देख ना पाईं
कंकण स्वीकार करना पड़ा झील को
और विक्षोभ की तरंगें भी ख़त्म
कुछ साँसे लेकर
फिर एक मछली उछली
झील की गहराइयों से
चंद साँसों के लिए
और हिल गई झील की सतह
कुछ पलों के लिए
मछली फिर भीतर
और झील कुछ पलों में
चली गई गहन समाधि में
करीब गया मैं झील के
देख सकता था अपना चेहरा
झील के चेहरे मेँ
आँखों मेँ आँखें डाल
जो थोड़ा अंदर झाँका तो
भीतर झील के शांत नहीं था सब
पर उसके अंदर जो भी हलचल थी
वो उसकी नहीं उन मछलियों की थी
जो रह रह कर ऊपर आ जाती थीं
झील का सीना चीरकर या
उन कंकड़ों की जो बाहर आए थे

कल छुआ था झील के पानी को
कुछ गरम था सूरज की रोशनी में
और धीमे धीमे
भाप  हो रहा था झील का वजूद
उसी झील का
आज कुछ हिस्सा जमा हुआ है
उसका चेहरा
बर्फ की परत ने ढँक लिया है

मैं देखता रहा
झील कोशिश करती रही
कि पड़ी रहे शांत मौन अचल
पर मैंने पाया
कभी मछली कभी कंकड़
कभी कोई चिड़िया
कभी धूप कभी बूंदे कभी बर्फ़
झील को चैन लेने नहीं देते
ना ही सोने देते उसे
उसे वो होने देने से रोकते हैं सब
जो होना चाहती है
शांत अचल नि:शब्द मौन

झील लगी बिलकुल
अपने मन के जैसी
हाथ मेँ रखे एक और कंकड़ को
वापस रख दिया मैंने जमीन पर
और वापस लौट पड़ा
अपने हिस्से के
मीठेपन खारेपन
कंकड़ पत्थर
धूप बारिश बर्फ़ की तरफ़
.............रजनीश (02.03.14)


Wednesday, June 26, 2013

वजूद का सच


तोड़कर भारी चट्टानें
 बनाया घर
 रोककर धार नदियों की
 बनाया बांध
 काटकर ऊंचे पहाड़
बनाया रास्ता
छेद कर पाताल
बनाया कुआं
पार कर क्षितिज
रखा कदम चांद पर
नकली बादलों से
जमीं पर बरसाया पानी
बंजर जमीन को सींच
बोया कृत्रिम अंकुर
क्या क्या नहीं किया ?
नदियों की धाराएँ मोड़ीं
हरे भरे पेड़ों को काटा
सुखाया सागरों को
कंक्रीट के जंगल बनाए

सपने की तरह उड़ना
तेज मन की तरह दौड़ना
सब कुछ आ गया मुट्ठी में
खुद से बेखबर रहने लगे

फिर आया एक जलजला
ढह गए सपनों के महल
बह गया इंसानी दंभ
सब छूट गया हाथ से फिसल
खोया खुद को
खो गए सब अपने
ना बचे खुद
ना बचे सपने
....रजनीश (26.06.13)

Sunday, June 3, 2012

गर्मी

गरम लू के थपेड़ों में
झुलस जाते हैं कुछ अरमान
भाप हो जाती हैं 
कुछ ख़्वाहिशें 
वक़्त बन जाता है 
अंगारों भरी सड़क 
जलता है फ़र्श 
और तपती हैं दीवारें 
झील सूख कर 
बन जाती है आईना 
ख़ुश्क हवा के हथौड़े 
बदन को लाल कर देते हैं 
गरम पलकों के घर 
में रहते आँसू भी सूख जाते हैं 

मर जाएँ कुछ ख्वाहिशें 
अधूरे पड़े रहें अरमान 
पर सूरज की किरणें 
झुलसा नहीं पाती 
मन की दीवारों को 
क्यूंकि वहाँ मौसम 
पर न कोई क़ाबू है 
न कोई बंधन 
कभी भी बारिश और 
कभी भी जलन  
और सूरज के कहर से 
भाप नहीं हो पाती 
पेट की भूख 
जिसके लिए 
मौसम की इस तपिश में 
हाथों को बार बार 
झुलसते देखा है 

इसीलिए किसी के लिए 
ये गर्मी है एक दर्द
और किसी के जीने का सहारा 
....रजनीश (03.06.2012)

Saturday, August 20, 2011

खालीपन

एक शून्य नज़र आता है
कभी कभी मन की
चहारदीवारी पर 
धीरे धीरे पूरा मन
डूब  जाता है
शून्य की दीवार के अंदर
और बाहर ही नहीं आता
उस दीवार के सहारे
पीठ टिकाये मैं सो जाता हूँ 
कभी लगता है
ऊंचाई से कूद गया
फ्री-फॉल  की तरह
मैं चलता रहता हूँ
आँखें मूँदे बस ढलान पर लुढ़कती
एक गेंद की तरह
और गेंद जब रुकती है
ढलान खत्म होने पर
शून्य जा चुका होता है
तब पलटना होता है
उस ढलान पर और
एक चढ़ाई करनी पड़ती है
वो शून्य आता कहाँ से है
पता नहीं चलता
वैसे इस शून्य को
हर मन में आते-जाते देखा है ...
....रजनीश ( 20.08.2011)

Saturday, July 9, 2011

अंधेरा

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एक अंधेरा ,
मेरी आवाज
जब देख नहीं पाती तुम्हें ,
जब नहीं सुनाई देती मुझे
बातें दीवारों पर
लिखी इबारतों की,
जब हर वो चीज खो जाती है
जो दिला सके
तुम्हारे होने का एहसास ,
रात ज्यों घुस आती है कमरे में
छोड़कर चाँद-तारे
कहीं दूर  वादियों में,
आईना हो जाता है जब अंधा,
नज़रें दे जाती हैं धोखा,
अंधेरा छा जाता है
रोशनी के हर एक ठिकाने पर,
मैं कर लेता हूँ बंद आँखें
और एक छोटी सी लौ
कहीं मन से उतर कर
बैठ जाती है अंदर आंखों के करीब
दिखने लगता है पूरा मंजर
और जन्म होता है रोशनी का

मैं हूँ एक अंधेरे की परत
जो  फैली हो गर मुझसे बाहर
कुछ भी नज़र नहीं आता 
अंधेरे के सिवा
"मैं" ही है अंधेरा
इसे हर जगह से खुरचकर समेटकर
आँखों के अंदर बंद कर लेता हूँ
अंधेरा नहीं रह जाता है
एक अंधेरा रोशनी में भी रहता है ...
और बंद आँखों से वो दिखता है
जो रोशनी में छुपा रह जाता है ...
...रजनीश (09.07.2011)

Tuesday, March 29, 2011

हमराज़

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तुम चाहते हो सब कुछ कह दूँ तुम्हें,
एक बार फिर दिल खोल कर रख दूँ 
उन कुछ पलों को मेरे अपने हो जाओगे,
मैं  तुम्हें थोड़ा और मालूम हो जाऊंगा, 
जान जाओगे एक और राज़, 
फिर शांत हो जाएगी तुम्हारी जिज्ञासा, 
हम दोनों के बीच खुला पड़ा
सामने मेज पर मुझे
देखकर ऊब  जाओगे,
कर्तव्य पूरा करोगे, मैं समझता हूँ कहकर ,
फिर तुम्हें अपनी सलीब दिखेगी
जो तुम्हें निकालेगी मेरी कहानी से हमेशा की तरह
दूर होने लगोगे तुम वहीं बैठे-बैठे,
और फिर सब भूल जाओगे जाते-जाते ,
थोड़ी देर में मेरा भी भ्रम दूर हो जाएगा
कि मन हल्का हो गया, 
मैं थोड़ा और बिखर जाऊंगा,
खैर,  तुम सुन तो लेते हो ...  
....रजनीश (29.03.11)

Saturday, February 12, 2011

मिल गया बसंत...

DSCN1804
कल पढ़ा था अखबार में ,
बसंत आ गया ,
कुछ बासन्ती पंक्तियों के साथ ,
छपी थी एक तस्वीर फूलों  की,
पर खुशबू नहीं मिली उसमें ...
मैंने कोशिश की एक फूल
खींच कर निकालने की,
पर वो पन्ने से बाहर नहीं आया ....
अपने मन को टटोला ,
वहाँ नहीं पहुंचा था बसंत...

बाहर निकला मैं,
रस्ते-रस्ते, गलियों-गलियों
दीवारों ,मकानों, चौराहों सब जगह देखा ,
पर कंक्रीट के जंगल में
बसंत कहीं नहीं मिला,
वो चिड़िया भी नहीं मिली छत की मुंडेर पर,
जो बसंत के पास ही रहती थी,
पता चला उसने वो जगह दे दी है ,
लोहे की एक मीनार को,
तलाशते-तलाशते कई जगह
निशान मिले, उसके कदमों की छाप मिली,
पर बसंत नहीं मिला...
वो तो यहाँ से कब का चला गया था,
और बस यादें अब सिमटी थी उसकी,
एक 'वीभत्स' मुरझाए से कागज के अखबार में ,
जो खुद सबूत  था एक हत्या का,

शहर के छोर पर जो दाई रहती है ,
उसने कहा कि सामने उस गाँव में जाओ,
शायद वहाँ  होगा ,
पर 'गाँव' बीच रस्ते में ही मिल गया ,
वो तो शहर की तरफ भाग रहा था,
पीछे जो जमीन छोड़ी थी उसने
उसके सीने मेँ उगी गहरी धारियाँ
देखकर मैं लौट गया थका हारा,

पर  इच्छा बड़ी तीव्र थी ,
आखिर ढूंढ ही निकाला उसे ,
गाँव से लगी पहाड़ी के पार ,
देख ही लिया उसका संसार
मिट्टी की खुशबू,  झरने की कलकल,
कू-कू की गूंज , खिलती कलियों की अंगड़ाई,
हौले से मटकती बयार के संग झूलती  बौर ,
सुनहली किरणों मेँ चमकता एक-एक रंग ,
वो कर रहा था नृत्य...

प्रेम और जीवन की अभिव्यक्ति हर पल मेँ थी,
हर एक  पत्ते  , हर एक कण मे था वो वहाँ ,
वैसा का वैसा ...
देखना चाहो तो तुम भी आ सकते हो,
पर दबे पाँव आना यहाँ,
अपनी छाप न पड़ने देना मिट्टी मेँ ,
रुकना नहीं यहाँ ,
इसे बस साँसों मेँ भरकर तुरंत
लौट जाना दबे पाँव ,
नहीं तो बसंत भाग जाएगा , समझे ?
..........रजनीश (12.02.2011)

Tuesday, November 16, 2010

दोस्त

rमन ,
मेरे दोस्त ,
शायद सबसे करीबी
कितनी निकटता है तुममें और मुझमें
लंगोटिया यार हो
तुम्हें कष्ट हुआ तो झलकता है मेरे चेहरे पर
मेरी खिलखिलाहट में छुपि होती है खुशी तुम्हारी ,
तुम मेरी आँखों से रोते हो,
तुम भटके तो मैं भटक जाता हूँ ,
शायद तुमहरे बिना मैं कुछ नहीं।
दिन भर तुम्हें साथ लिए घूमता हूँ ...
रात में तुम मुझे ले चलते हो अपनी दुनिया में
दोस्त,
अक्सर समुंदर की रेत पर तुम्हारे साथ दौड़ते मैं थक जाता हूँ
पर तुम दौड़ते रहते हो मुझसे आगे , हमेशा /
इस दौड़ में मुझे बड़ा मजा आता है/
दोस्त  ,
एक दिन तुमसे आगे मैं जरूर निकलूँगा .......
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....