कभी कभी मन की
चहारदीवारी पर
धीरे धीरे पूरा मन
डूब जाता है
शून्य की दीवार के अंदर
और बाहर ही नहीं आता
उस दीवार के सहारे
पीठ टिकाये मैं सो जाता हूँ
कभी लगता है
ऊंचाई से कूद गया
फ्री-फॉल की तरह
मैं चलता रहता हूँ
आँखें मूँदे बस ढलान पर लुढ़कती
एक गेंद की तरह
और गेंद जब रुकती है
ढलान खत्म होने पर
शून्य जा चुका होता है
तब पलटना होता है
उस ढलान पर और
एक चढ़ाई करनी पड़ती है
वो शून्य आता कहाँ से है
पता नहीं चलता
वैसे इस शून्य को
हर मन में आते-जाते देखा है ...
....रजनीश ( 20.08.2011)