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Sunday, May 20, 2018

मंजिलें और खुशियाँ

जिंदगी के सफर में
मंजिल दर मंजिल
एक भागमभाग
में लगा हुआ
हमेशा हर ठिकाने पर
यही सोचा
कि क्या यही है वो मंजिल
जिसे पा लेना चाहता था
पर मंजिल दर मंजिल
बैठूँ कुछ सुकून से
इसके पहले ही
हर बार
मिल जाता है
एक नया पता
अगली मंजिल का
अब तक के सफर में
कई कदम चलने
कई जंग लड़ने
वक्त के पड़ावों को
पार करते करते
खुद को  भुला
मंजिलों का पीछा करने के बाद
अब सोचता हूँ
आखिर  मंजिलें है क्या
रुकता त़ो हूँ नही उनपर
वक्त तो रस्ते में ही गुजरता है
इसलिये अब
मंजिलों में खुशियाँ तलाशना छोड़
रस्ते की ओर देखता हूँ
और पाया है मैने
कि सारी खुशियाँ तो
रस्ते पर ही बिखरी पड़ी हैं
जबसे इन पर नजर पड़ी है
इन्हें  ही बटोरने में लगा हूँ
और अब हालात ये हैं
कि ख्याल ही नहीं रहा
मंजिलों का,
सफर बदस्तूर जारी है !
.....रजनीश (20.05.18)

Saturday, January 24, 2015

दरअसल ....



















था न कोई उस राह , पर इंतजार हम करते रहे
उनको हमसे नफ़रत सही , पर प्यार हम करते रहे    

वक़्त की ख़िदमत में , अक्ल-ओ-दिल से लिए फैसले
और किस्मत के नाम , हर अंजाम हम करते रहे

रिश्ता निभाने खुद को भुला देने से था परहेज़ कहाँ  
बस रिश्ता बनाने का जतन हम करते रहे

बसा जो दिल में था उसे क्या भूला क्या याद किया  
बस खोए हुए दिल की तलाश हम करते रहे

क्या कहें क्या अफसाना क्या मंज़िल क्या ठिकाना
बस एक सफ़र की गुजारिश हम करते रहे

............रजनीश (24.01.15)

Tuesday, May 31, 2011

कार

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चलते-चलते थक कर
किनारे सड़क के
रुकी इक कार से
टिककर कुछ सांसें लेता  हूँ
माथे पर उभर आई हैं बूंदें पसीने की...
पोंछते-पोंछते लगता है
जिस कार का सहारा लिया है
वो जैसे मेरी ही ज़िंदगी है
एक जगह पर "पार्क"
सड़क पर आने के लिए
कुछ सांसें इकठ्ठा करती ...
कार की तरह ही
एक छोटी सी नियत परिधि में
सफर तय करती ज़िंदगी
एक नियत क्रम में
जैसे एक खूँटे से बंधी ...
कितना सीमित कर लिया है
अपनी ज़िंदगी को इन रस्तों में
कितना थोड़ा सा हूँ मैं ...

फिर चल पड़ता हूँ
इस बार एक नई दिशा में
यही सोचकर कि शायद
कुछ और खुल जाऊँ
कुछ और खिल जाऊँ
जो भीतर छुपा हूँ
कुछ और मिल जाऊँ
कुछ और संभावनाएं
कुछ नई शुरुआत
कुछ और सड़क और शिखर खोजूँ
क्यूंकि नहीं परखा है सीमाओं को
बहुत थोड़ा सा ही
जाना है और जिया है
खुद को अब तक ...
...रजनीश (30.05.11)

Thursday, March 24, 2011

सड़क और सफर

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शहर की दीवारों
पर पड़े छींटे
गवाह हैं  होली से हुई मुलाक़ात के
जो गुजरी हाल ही,  मेरे शहर  की सड़कों से होकर,
कल मै था एक सड़क पर,
जिसके  सीने पर भी
दिखे कुछ सुर्ख लाल निशान,
होली ने कहा   मेरे तो नहीं, 
ये गवाह निकले 
एक मुसाफ़िर की मौत के,
जिसका सफ़र सड़क पर
ही ख़त्म हो गया था,
और एक पल में ही शुरू कर लिया था
उसने एक नया सफ़र,
सड़क ने कहा,
मुझे तो इस रंग से कोई प्यार नहीं,
मेरा  होली से कोई रिश्ता नहीं,
न ही कोई प्यास मुझे,
ये तुम्हारा अपना
तुम लोगों की ही अंधी दौड़
और पागलपन का शिकार है,
क़िस्मत को क्यूँ खड़े करते हो कटघरे में,
ये तो वक्त को पीछे छोड़
आगे निकलने  की कोशिश का नतीजा है,
मैं सड़क पर बढ़ता  रहा  ,
और आगे भी लाल धब्बे मिलते रहे
मैं सोचता रहा कि
आखिर  सड़क की बात
पर हम गौर क्यूँ नहीं करते ?
...रजनीश (24.03.11) 
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