Showing posts with label प्रकृति. Show all posts
Showing posts with label प्रकृति. Show all posts

Wednesday, July 4, 2012

कुछ दोहे - एक रपट

ये चित्र - गूगल से , साभार 














महीना आया सावन का
बारिश का इंतज़ार
हम देख आसमां सोचते
कैसी  मौसम की मार

रुपया चला रसातल में
डालर से अति  दूर
क्या खर्चें क्या बचत करें
हालत से मजबूर

महँगाई सुरसा हुई
तेल स्वर्ण हुआ जाए
गाड़ी से पैदल भले
सेहत भी चमकाए

है यू एस में गुल बिजली  
और जन-जीवन अस्त-व्यस्त 
हुआ प्रकृति की लीला से
सुपर पावर भी त्रस्त

गॉड पार्टिकल खोज कर
इंसान खूब इतराए
गर हों तकलीफ़ें दूर सभी
तो ये बात समझ में आए

कहीं पर पब्लिक क्रुद्ध है
कहीं होता गृह युद्ध
इस अशांत संसार को
फिर से चाहिए बुद्ध
......रजनीश (04.07.12)

Saturday, December 3, 2011

आमंत्रण

DSCN5102
घूमती है धरा सूरज के चहुं ओर
चंदा लगाता है धरा के फेरे
पेड़ करते हैं जिसे छूने की कोशिश 
मुंह किए रहती है सूरजमुखी
उस सूरज की ओर

उड़ते है पंछी बहता है पानी
चलती है हवा होती है बरखा
बदलते हैं मौसम
हर कोने पर  होती है
बीतते समय की छाप
जो लौट लौट कर आता है
एक निरंतरता और
एक पुनरावृत्ति
एक नाद जिसकी अनुगूँज हर कहीं
एक स्वर लहरी जो बहती है हर कहीं
सूरज चाँद तारे और धरा
कोई तारा टूटा तो कोई तारा जन्मा
सभी करते नृत्य निरंतर
गाते हैं सभी
ब्रम्हान्डीय संगीत ...

इधर हम धरा के सीने में
अपना शूल चुभाते 
पानी की दिशा मोड़ते
पंछियों के घर तोड़ते 
फैलाते हैं दुर्गंध  और कोलाहल
हम सूरज के साथ नहीं चलते
हमारी दिशा विनाश की दिशा है
हमारा रास्ता विध्वंस का है
जैसे हम इस सुर-संगम का हिस्सा नहीं !

अच्छा लगता है
हमें कृत्रिम वाद्यों की धुन पर
गाना और  नाचना
क्यूंकि  होते हैं हम उस वक्त
प्रकृति के करीब उसी के अंश रूप में
एक क्षणिक आनंद
और फिर से नीरस दिनचर्या
हमें एहसास नहीं
निरंतर गूँजते
संगीत का 
क्यूंकि  हमने रख लिए हैं
 हाथ कानों पर
और पैरों में बेड़ियाँ डाली हैं
हमारे पाँवों को
 नहीं आता थिरकना
प्रकृति के सुर, लय और ताल पर
जो जीवित है गुंजायमान है
हर क्षण और हर कण में

आओ, अपना रास्ता मोड़ लें हम
प्रकृति के साथ प्रकृति की ओर आयें
नैसर्गिक संगीत में हरदम थिरकें
और  उत्सव का हिस्सा बन जाएँ  ...
....रजनीश (03.12.2011)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....