Wednesday, February 29, 2012

सूरत असली-नकली



दूर से मिलते आकर और चले जाते हैं दूर
दूर से ही दूर क्यों सीधे निकल नहीं जाते

दुहाई रिश्तों की और बयां हमनिवाला दिनों का 
जाया करते हैं वक़्त क्यों मुद्दे पर नहीं आते 

सारी रात चले महफिल और उनकी जाने की रट 
पर जमे रहते हैं क्यों उठकर चले नहीं जाते

वादा मदद का और साथ मुश्किलों का बखान
तकल्लुफ छोडकर क्यों सीधे पैसों पर नहीं आते

मुंह में राम राम और बगल में रखें रामपुरिया
पीठ पर ही वार क्यों  सीने में घोप नहीं जाते

जो मिला न उनको और वही मिल गया हमको
फ़ीका मुस्कुराते हैं क्यों सीधे जल नहीं जाते

आँखों से टपके आँसू और कलेजे में पड़ी है ठंडक
छोड़ गमगुसारी क्यों जाकर खुशियाँ नहीं मनाते

छुपता नहीं छुपाने से और चेहरे से बयां हो जाता है
मुखौटे बदलते हैं क्यों ये बात समझ नहीं पाते

.....रजनीश (29.02.12)

Saturday, February 25, 2012

मैं, तुम और हमारा वक़्त

तुम कहते हो जो मुकाम सफ़र में
गुजर जाते हैं वो फिर नहीं आते
पर कयामत बार-बार आती है
और दुनिया हर बार फिर से पैदा होती है
वक़्त का पहिया चलता रहता है
एक गोल घेरे में,
दुनिया की किस्मत में
वक़्त बार बार लौटता है

सुना ये भी है कि जा सकते हैं
वक़्त से आगे
और इसके पीछे भी
इसकी चाल का भी
कोई ठिकाना नहीं
कभी तेज कभी बहुत धीमा
मेरे कुछ पलों में
तुम्हारे बरसों गुजर सकते हैं

गुजरते पलों की रफ़्तार का
कुछ ऐसा ही है अपना भी तजुर्बा
कुछ बरस बीते पलों में
और बीते कुछ पल बरसों में
कभी मिला कोई जो था वक़्त से आगे
कोई गुजरे हुए पल में गड़ा
पर वक़्त नहीं मिला कहीं रुका हुआ,
वो हरदम चलता ही रहा
मैं तो नहीं पकड़ सका
मैं कोशिश कर सका
बस इसके साथ चलने की,

लौटते नहीं देखा मैंने
वक़्त  को कभी
और कभी मिला जो मुड़कर
एक गुजरा हुआ पल
तो वो पल भी वही नहीं था
उसका चेहरा मिला
कुछ बदला बदला सा

वक़्त क्या सच मे गुजर जाता है
हमेशा हमेशा के लिए
क्या जिस पल मेंअभी हम हैं
वो सचमुच गुजर गया है
वो कौन सा पल है
जिसमें मैं हूँ अभी

कई बार चाहा कि
गुजरे वक़्त में जाकर
बदल दूँ अपना आने वाला कल
चाहा कि आने वाले कल
के घर दस्तक दे
मोड़ दूँ अपना आज का रास्ता,
सुना है मैं भाग सकता हूँ
तेज़ वक़्त से और तुम भी
पर मैं तो दौड़ हारता रहा हूँ
आज तलक इस वक़्त से, 
तुम्हारी तुम जानो
ये बस वैसा ही चला
जैसा इसे मंज़ूर था

बदलते वक़्त की छाप
मिलती है जर्रे-जर्रे में
मैं नाप सकता हूँ
दूरियाँ पलों की
जो फैली पड़ी है
खुशियों और तनहाई के बीच
देखा है मैंने भी वक़्त को
सिर्फ गुजरते हुए

जान सका हूँ मैं तो सिर्फ यही कि
मुझे जो करना है वो इसी आज में
मैं तो सिर्फ इसे पूरा जीकर
बीते और आने वाले पलों को
बना सकता हूँ यादगार

इस कायनात के आगे
मैं कुछ नहीं तुम कुछ नहीं
दुनिया बार-बार बनेगी
पर मैं और तुम
क्या दुबारा होंगे यहाँ
क्या हमारा वक़्त लौटेगा

हमारा वक़्त है
सिर्फ ये आज
हमारा वक़्त है वो
जो है अभी और यहीं
जिस पल मैं मुख़ातिब हूँ तुमसे
बस ये पल हमारा है ....
रजनीश (25.02.2012)
टाइम ट्रेवल और सापेक्षता के सिद्धान्त पर 

Sunday, February 19, 2012

दूर दर्शन


कुछ आंसू जो कैद थे 
एक रील में 
सिसकियों के साथ 
तरंगों में बह जाते हैं  
जब चलती है वो रील 
सारे लम्हे संग आंसुओं के 
हवा में हो जाते हैं प्रसारित 
एक तरंग में 
उन्हें महसूस कर 
कैद करता है एक तार
और मेरे दर तक ले आता है 
काँच की इक दीवार के पीछे 

एक माध्यम में प्रवाहित हो 
एक किरणपुंज आंदोलित होता है  
और काँच की उस दीवार पर 
नृत्य करने लगती हैं 
प्रकाश की रंग बिरंगी किरणें 
नाचते नाचते 
टकराती हैं आकर 
एक पर्दे से 
मेरी आँखों के भीतर 

जन्म होता है  
एक तरंग का 
जो भागती है 
मस्तिष्क की ओर
उसका संदेश 
लाकर सुनाती है 
मेरी आँखों को 
कुछ आँसू 
ढलक जाते हैं 
मेरी आँखों से 
और आ गिरते हैं 
हथेली पर
और इस तरह
पूरा होता है 
रील में बसे 
आंसुओं का सफर 
  
.....रजनीश (19.02.12)
टीवी देखते हुए

Wednesday, February 15, 2012

तुम्हारा ही नाम











सुबह की सुहानी ठंड
बिछाती है ओस की चादर
घास पर उभर आती है
एक इबारत
हर तरफ
दिखता है बस
तुम्हारा ही नाम

राहों से गुजरते
वक़्त की धूल
चढ़ जाती है काँच पर
पर हर बार
गुम होने से पहले
इन उँगलियों से
लिखवा लिया करती है
तुम्हारा ही नाम

एक पंछी अक्सर
दाना चुगते-सुस्ताते
मुंडेर पर छत की
गुनगुनाता और बतियाता है
और वहीं पास बैठे
पन्नों पे ज़िंदगी उतारते-उतारते
उसकी चहचहाहट में
मुझे मिलता है बस
तुम्हारा ही नाम

सूरज को विदा कर
जब होता हूँ
मुखातिब मैं खुद से
तो बातें तुम्हारी ही होती हैं
और फिर थपकी देकर
लोरी गाकर जब रात सुलाती है
तो खो जाता हूँ सपनों में
सुनते सुनते बस
तुम्हारा ही नाम
......रजनीश (15.02.2012)

Monday, February 13, 2012

एक नज़्म की कहानी

एक नज़्म लिखी थी 
उस पन्ने पर 
जो दिल में 
कोरा पड़ा था 
पर कुछ शब्द 
नहीं थे पास मेरे 
कुछ लाइनें अहसासों में 
अटक गईं थीं 
लिखते लिखते ही 
पन्ना गुम 
गया था रद्दी में 
कलम भी खो गई थी 
हिसाब-किताब में 

पलाश फिर दिखा 
खिड़की से 
रद्दी से फिर 
हाथ आ गया
वही पन्ना 
उस नज़्म के दिन 
लौट आए हैं ... 
रजनीश (13.02.2012)

Thursday, February 9, 2012

मेरी दुनिया

मैं चलता हूँ जिस रास्ते पर
एक मील एक कदम
और कभी एक कदम
एक मील का होता है

घर की  सीढ़ी से उतरते
सड़क पर आते आते
घर के भीतर पहुंच जाता  हूँ
और सड़क घर के भीतर 
आ जाती है कभी-कभी 

सड़क पर चलते चलते
देखता हूँ एक फ़िल्म हर रोज़
वही पीछे छूटते मकान
बदहवास से भागते वही लोग
वही आवाजें वही कदम 
जब भी इस सड़क से जाता हूँ
इस सड़क पर मैं नहीं होता

अंनजान चेहरों  में
दिखते अपने जाने-पहचाने 
मिलते हैं अपने जाने-पहचाने 
बेगाने भी हर रोज़ 

मेरे भीतर एक और मैं 
उसके भीतर शायद एक और 
परत दर पर कई जिंदगियाँ 
बारी-बारी दिन भर 
सामने आती रहती हैं 

दिन भर कई जगह 
बढ़ते कदमों के साथ 
थोड़ा-थोड़ा छूटता जाता हूँ 
कहीं मैं कहीं मेरे निशान 
हर डूबते सूरज के साथ 
शाम जो लौटता है 
पूरा मैं नहीं होता 
घर की दीवारें भी 
कुछ बदल जाती हैं 

रात को बंद  आंखे 
देखती हैं कुछ सड़कें घर और चेहरे 
जो रात समेट कर ले जाती है 
सुबह-सुबह अपने साथ 

कुछ पल रोज़ 
अपना चेहरा देखता हूँ 
आईने में ..
पहचान नहीं पाता 
देखते देखते 
अपना चेहरा भूल सा गया हूँ 
और  कुछ पलों से ज्यादा 
 ठहर नहीं सकता 
आईने के सामने 
क्यूंकि वक़्त कहाँ होता है इतना 
क्या करूँ ...
..........रजनीश (09.02.12)
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