Thursday, February 9, 2012

मेरी दुनिया

मैं चलता हूँ जिस रास्ते पर
एक मील एक कदम
और कभी एक कदम
एक मील का होता है

घर की  सीढ़ी से उतरते
सड़क पर आते आते
घर के भीतर पहुंच जाता  हूँ
और सड़क घर के भीतर 
आ जाती है कभी-कभी 

सड़क पर चलते चलते
देखता हूँ एक फ़िल्म हर रोज़
वही पीछे छूटते मकान
बदहवास से भागते वही लोग
वही आवाजें वही कदम 
जब भी इस सड़क से जाता हूँ
इस सड़क पर मैं नहीं होता

अंनजान चेहरों  में
दिखते अपने जाने-पहचाने 
मिलते हैं अपने जाने-पहचाने 
बेगाने भी हर रोज़ 

मेरे भीतर एक और मैं 
उसके भीतर शायद एक और 
परत दर पर कई जिंदगियाँ 
बारी-बारी दिन भर 
सामने आती रहती हैं 

दिन भर कई जगह 
बढ़ते कदमों के साथ 
थोड़ा-थोड़ा छूटता जाता हूँ 
कहीं मैं कहीं मेरे निशान 
हर डूबते सूरज के साथ 
शाम जो लौटता है 
पूरा मैं नहीं होता 
घर की दीवारें भी 
कुछ बदल जाती हैं 

रात को बंद  आंखे 
देखती हैं कुछ सड़कें घर और चेहरे 
जो रात समेट कर ले जाती है 
सुबह-सुबह अपने साथ 

कुछ पल रोज़ 
अपना चेहरा देखता हूँ 
आईने में ..
पहचान नहीं पाता 
देखते देखते 
अपना चेहरा भूल सा गया हूँ 
और  कुछ पलों से ज्यादा 
 ठहर नहीं सकता 
आईने के सामने 
क्यूंकि वक़्त कहाँ होता है इतना 
क्या करूँ ...
..........रजनीश (09.02.12)

7 comments:

vidya said...

गहन अभिव्यक्ति...

बेहतरीन रचना.

vandana gupta said...

यही तो जीवन की विवशता है।

मेरा मन पंछी सा said...

बहुत सुन्दर गहन भावाभिव्यक्ति ....

Onkar said...

bahut sundar

प्रवीण पाण्डेय said...

सच कहा, कभी काटे नहीं कटती है, कभी सर्र से निकल जाती है जिन्दगी..

AmitAag said...

Very well written Rajnish!
Nice blog!
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amitaag.blogspot.com

रचना दीक्षित said...

बहुत सुन्दर गहन अभिव्यक्ति.

पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....