Sunday, February 27, 2011

कुछ प्रश्न...

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[1]
जीवन ,माना चक्र है ।
पर कहते हो
है ये   सीढ़ी भी ,
कहाँ  टिकी ऊपर  ये सीढ़ी ?
वो छोर,
क्यूँ नहीं दिखता है ?

[2]
प्रेम धुरी से बंधे,
दो पहिये,
जीवन पथ पर चलते हैं ।
इसे हाँकता कौन  सारथी ?
वो  चेहरा,
क्यूँ  नहीं  दिखता है ?

[3]
तुमने छोड़ दिया था ,
सब कुछ ,
क्या सच में  वो अब पास नहीं ?
त्याग  तुम्हारा,
हरपल रहते   दंभ  के संग
क्यूँ दिखता है ?

[4]
प्रेम तुम्हें है
प्रेम मुझे है,
और अगर  एकात्म हैं हम ।
फिर हरदम, हमारे बीच
रखा ये समझौता
क्यूँ दिखता है ?

[5]
प्रखर मस्तिष्क,
संवेदनशील,
और  है निपुण  सम्प्रेषण में ,
फिर वो दोपाया, पूंछकटा
जानवर सा
क्यूँ दिखता है ?
.....रजनीश (27.02.2011)

Friday, February 25, 2011

परिचय

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पर्वत मैं हूँ स्वाभिमान का,
मैं  प्रेम का महासमुद्र हूँ ,
मैं जंगल हूँ भावनाओं का,
एकाकी  मरुस्थल हूँ मैं  ,

सरित-प्रवाह  मैं परमार्थ का,
मैं  विस्मय का सोता हूँ ,
हूँ घाट एक , रहस्यों का,
संबंधों का  महानगर हूँ मैं ,

झील हूँ  मैं एक शांति की,
मैं उद्वेगों का ज्वालामुख हूँ,
हूँ दर्द भरा काला बादल,
उत्साह भरा झरना हूँ मैं ,

 दलदल हूँ मैं लालच का,
मैं घमंड का महाकुंड हूँ,
हूँ गुफा एक वासनाओं की,
भयाक्रांत वनचर हूँ मैं ,

 दावानल हूँ विनाशकारी ,
मैं  शीतल मंद बयार हूँ ,
हूँ सूर्य किरण का सारथी,
प्रलयंकारी भूकंप हूँ मैं,

मैं हूँ जनक, मैं प्राणघातक,
मैं पोषित और पोषक मैं हूँ,
हूँ इस प्रकृति का एक अंश,
सूक्ष्म, तुच्छ मनुष्य हूँ मैं ..
....रजनीश (25.02.2011)

Tuesday, February 22, 2011

बे-मौसम बरसात

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दो-तीन दिनों से कर रहे थे इशारा , और कल गरजे सुबह-सुबह
जैसे मुनादी कर रहे हों , कि हम आ गए हैं और बस शुरू हो गए बरसना ...
कल दिन भर बादल कुछ ऐसे बरस रहे थे , जैसे कुछ हिसाब रहा गया था
जिसे पूरा करना था , कल का दिन फ़रवरी का नहीं था ...

[1]
एक बादल रहता है ,
दिल के कोने में ....
कल वो फिर गुजरे दिल के रस्ते से,
और जाते-जाते
उस बादल को बरसा गए ।
सुखाया था इक दर्द ,
रोज़मर्रे की धूप में,
इस बेमौसम बरसात ने
उसे फिर से गीला कर दिया ....

[2]
जहां कभी लिखी थी मैंने , कुछ पत्तों पर  कहानियाँ
वो पूरी बगिया ही मुझे झाड़-झंखाड़ सी लगी
तब झाड़ा था मैंने उन सूखे दर्दीले पत्तों को ,
कुछ आशाएँ डाली थी मैंने क्यारियों में,
और कई दिनों  'खुद' से सींचा था... 
अभी आए ही थे कुछ फूल उम्मीदों के,
नई उमंगों के बस बौर फूटे थे,
तभी क़िस्मत के बादलों ने
ढंका ये बासंती मंज़र ,
बेवक्त हुई  बारिश से ,
पूरा सपना ही बह गया ...

[3]
मैं दुखी हूँ,
क्यूंकि बेवक्त बरस गया एक बादल ,
मैं  रोता हूँ उन चंद बासंती लम्हों के लिए
जो इस बरसात में भीग , गल गए,
बेवजह का रोना है मेरा  ,
क्यूंकि वो लम्हे  बस खो गए हैं रस्ते में ,
फिर  मिल जाएँगे अगले मोड़ पर ,
न भी मिले,  तो  और भी कई ग़म हैं,  वजहें हैं  ...
पर वो क्या करे ?
जिसके खेत में बादल बरस गया बेमौसम,
जहां   बरसात ने बहाया और सड़ाया 
बीजों को, जिन्हें बोया था पसीने ने...
वो क्या करे ?
जिसकी  साल भर की कमाई,
बोरों में भरे-भरे , बरसात को प्यारी हो गई
उसका बसंत तो बहुत-बहुत दूर चला गया होगा ....
हो सकता है हमेशा के लिए ….
......रजनीश (21.02.2011)

Sunday, February 20, 2011

दुनिया

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जहां रहता हूँ  मैं, है वो  इक दुनिया,
जहां घर तुम्हारा  , वो भी इक दुनिया...

देखा था जिसे ख्वाब में ,  वो इक दुनिया,
हक़ीक़त में जो मिली ,  वो भी इक दुनिया...

था छोड़ा कल जिसे,  वो इक दुनिया,
कल मिलूँगा जहां तुमसे,  वो भी इक दुनिया...

बाहर  मिली जो मुझसे,  वो इक दुनिया,
ज़िंदा जो मेरे भीतर , वो भी इक दुनिया...

है तेरी और  मेरी, साझा वो इक दुनिया,
है ना तेरी  और ना मेरी ,  भी इक दुनिया !

तेरी दुनिया के अंदर मेरी, वो  इक दुनिया,
मेरी दुनिया के अंदर  तेरी, भी इक दुनिया...

जो मेरे कदमों तले कुचली, वो थी इक दुनिया,
जिसे  हाथों में है सम्हाला , ये भी इक दुनिया ...
.....रजनीश (20.02.2011)

Friday, February 18, 2011

कुछ हल्के-फुल्के से...

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(1)
मेरी दोस्ती पर, इतना एतबार करिए,
गर मिस करते हैं , मिस्ड कॉल  करिए !
(2)
हैं वो सामने, उनकी  बेरुख़ी को क्या कहिए ...
हमसे कहते हैं कि  'कवरेज़ एरिया' से बाहर हो !
(3)
अब उसके दर तक, कोई रास्ता नहीं जाता ,
अफसोस कि वो 'नंबर' अब मौजूद नहीं हैं ...
(4)
ये दिल है बेकरार , कहीं लगता नहीं ,
बोर ये होता है, जां 'रिमोट' की जाती है...
(5)
हर बार की तरह,  वो कल भी मुझसे रूठ गया,
उसे मनाने  मैंने, फिर से एसएमएस किया...
(6)
कभी दिखा नहीं, पर  होगा वो चाँद सा मुखड़ा ,
एक आरजू है दिल में , हम 'चैट' किया करते हैं ...
(7)
दिल की आवारगी भी क्या-क्या जतन करती है ,
उसने मोबाइल में दो-दो 'सिम' लगा रक्खा है ...
(8)
खो गए थे वो, इस दुनिया की भीड़ में कहीं,
फ़ेस-बुक ने वो हाथ, मेरे हाथों पे रख दिया ...
(9)
सुना था उसकी दुनिया में, चिड़िया चहकती है,
पर यहाँ  , दोपाया इंसान ट्वीट  करता है ...
.....रजनीश (18.02.2011)
अगर पसंद आए तो बाकी फिर कभी !!

Thursday, February 17, 2011

दृष्टिभ्रम

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कंपकंपाते होठों पर 
अटके से थे शब्द कुछ ...
हवा से हिलते केश में,
ढँका मानो आमंत्रण...
कांपते हाथों में,
फंसी थी एक पाती...
झुकी पलकों में ,
छुपा सा लगा समर्पण ...
उकेरता था पाँव, कुछ वृत्त ,
उसने, लगा सब कुछ कहा था ,
पर, था छुपाता दरअसल वो एक मोती,
जो बचा नज़रें वहीं, पलक से गिरा था ....
हाथ में उसके सिर्फ एक नज़्म थी,
जिसमें कुछ नहीं बस अलविदा लिखा था...
...............रजनीश (16.02.2011)

Monday, February 14, 2011

प्रेम

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तुम कहो  जो ,चाँद-तारे
इस धरा पर तोड़ लाऊं ,
है असंभव ये , कहो तो,
सर्वस्व अपना मैं लुटाऊँ ...

अनुभूत कर सकते तभी,
जब पथ पर चलने तुम लगो ,
हृदय ये मेरा ,  पथ है वो,
आओ, चलो , खुद से मिलो ...

प्रेम होता स्व को खोकर ,
दूसरा बन जाओ तभी ,
मैं नहीं हूँ , तुम हूँ मैं;
क्षण भर को तो, देखो कभी...

खुद को खो दो, प्रेम पा लो,
प्रत्येक कण में प्रेम है ,
अप्रेम जैसा कुछ नहीं ,
शाश्वत, जगत में प्रेम है ...

हृदय होते नहीं है पूरक,
वे स्वयं सम्पूर्ण हैं,
जब पूर्ण  मिलता पूर्ण में ,
तब प्रेम होता पूर्ण है...

.........रजनीश (14.02.2011)

Saturday, February 12, 2011

मिल गया बसंत...

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कल पढ़ा था अखबार में ,
बसंत आ गया ,
कुछ बासन्ती पंक्तियों के साथ ,
छपी थी एक तस्वीर फूलों  की,
पर खुशबू नहीं मिली उसमें ...
मैंने कोशिश की एक फूल
खींच कर निकालने की,
पर वो पन्ने से बाहर नहीं आया ....
अपने मन को टटोला ,
वहाँ नहीं पहुंचा था बसंत...

बाहर निकला मैं,
रस्ते-रस्ते, गलियों-गलियों
दीवारों ,मकानों, चौराहों सब जगह देखा ,
पर कंक्रीट के जंगल में
बसंत कहीं नहीं मिला,
वो चिड़िया भी नहीं मिली छत की मुंडेर पर,
जो बसंत के पास ही रहती थी,
पता चला उसने वो जगह दे दी है ,
लोहे की एक मीनार को,
तलाशते-तलाशते कई जगह
निशान मिले, उसके कदमों की छाप मिली,
पर बसंत नहीं मिला...
वो तो यहाँ से कब का चला गया था,
और बस यादें अब सिमटी थी उसकी,
एक 'वीभत्स' मुरझाए से कागज के अखबार में ,
जो खुद सबूत  था एक हत्या का,

शहर के छोर पर जो दाई रहती है ,
उसने कहा कि सामने उस गाँव में जाओ,
शायद वहाँ  होगा ,
पर 'गाँव' बीच रस्ते में ही मिल गया ,
वो तो शहर की तरफ भाग रहा था,
पीछे जो जमीन छोड़ी थी उसने
उसके सीने मेँ उगी गहरी धारियाँ
देखकर मैं लौट गया थका हारा,

पर  इच्छा बड़ी तीव्र थी ,
आखिर ढूंढ ही निकाला उसे ,
गाँव से लगी पहाड़ी के पार ,
देख ही लिया उसका संसार
मिट्टी की खुशबू,  झरने की कलकल,
कू-कू की गूंज , खिलती कलियों की अंगड़ाई,
हौले से मटकती बयार के संग झूलती  बौर ,
सुनहली किरणों मेँ चमकता एक-एक रंग ,
वो कर रहा था नृत्य...

प्रेम और जीवन की अभिव्यक्ति हर पल मेँ थी,
हर एक  पत्ते  , हर एक कण मे था वो वहाँ ,
वैसा का वैसा ...
देखना चाहो तो तुम भी आ सकते हो,
पर दबे पाँव आना यहाँ,
अपनी छाप न पड़ने देना मिट्टी मेँ ,
रुकना नहीं यहाँ ,
इसे बस साँसों मेँ भरकर तुरंत
लौट जाना दबे पाँव ,
नहीं तो बसंत भाग जाएगा , समझे ?
..........रजनीश (12.02.2011)

Friday, February 11, 2011

दोस्त

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वो कुछ कहता नहीं,
और मैं सुन लेता हूँ,
क्योंकि उसकी बातें
मेरे पास ही रखी हैं,
उसकी आवाज़ में झाँककर
कई बार अपने चेहरे पर चढ़ी धूल
साफ की है मैंने ,
अक्सर उसकी वो आवाज़,
वहीं पर सामने होती है
जहां तनहा खड़ा ,
मैं खोजता रहता हूँ खुद को,
उस खनक में ,
रोशनी  होती है एक
जो करती है मदद,
और मेरा हाथ पकड़
मुझे ले आती है मेरे पास,
उसकी आवाज़ फिर  सहेजकर 
रख लेता हूँ....
दोस्त है वो मेरा .....
.............रजनीश (10.02.2011)

Tuesday, February 8, 2011

परिवर्तन

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अब तुतलाता नहीं, पर बोलता नहीं हूँ,
अब  रोता नहीं , पर हँसता नहीं हूँ,
अब चीखता नहीं, पर शांत नहीं हूँ,
अब रूठता नहीं, पर मानता नहीं हूँ,
अब पूछता नहीं, पर जानता नहीं हूँ,
अब रटता नहीं, पर सीखता नहीं हूँ ,
अब गिरता नहीं, पर उठता नहीं हूँ,
अब छीनता नहीं , पर देता नहीं हूँ,
अब चुराता नहीं, पर बांटता नहीं हूँ,
अब तोड़ता नहीं, पर जोड़ता नहीं हूँ,
अब लड़ता नहीं, पर जुड़ता नहीं हूँ,
अब मारता नहीं, पर बचाता नहीं हूँ,
अब बेसुरा नहीं, पर गाता नहीं हूँ,
अब गुमता नहीं , पर मिलता नहीं हूँ,
अब  छोटा नहीं , पर बड़ा नहीं हूँ...
...........................
बड़ा लंबा है इन्सानियत के घर का रास्ता !
चल तो रहा हूँ इस पथ में , पर आगे बढ़ता नहीं हूँ ....
........रजनीश (08.02.11)

Sunday, February 6, 2011

आस

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एक दिन, चढ़ गया है..
एक पत्ता, झड़ गया है..
एक दोस्ती,  टूट गयी है..
एक डोर, छूट गयी है..
एक पता, गुम गया है..
एक रास्ता, रुक गया है..
एक रंग , धुल गया है..
एक बंधन, खुल गया है..

एक कमरा, खाली है..
एक क़रार, जाली है..
एक किस्मत, रूठी है..
एक मुस्कान, झूठी है..
एक रिश्ता, अज़ीब है..
एक दिल, गरीब है..
एक डगर, अनजानी है..
एक सौदा, बेमानी है..
एक रात , बहुत लंबी है..
एक बात , बहुत लंबी है..
...............
...............
एक मयखाना , वहाँ साक़ी है..
एक जाम , अभी बाकी है..
एक सपना, अधूरा है..
एक पन्ना,  कोरा है..
एक आस , अभी ज़िंदा है..
एक इंसान, शर्मिंदा है..
एक धड़कन, मचलती है..
एक ज़िंदगी, चलती है ..…..
………………..रजनीश (06.02.2011)

Saturday, February 5, 2011

आँसू

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कुछ बेवफ़ा बूंदों ने
छोड़ दिया दामन,
और अँखियों को रुला ,
जमीं की हो गईं ....
......
एक  बूंद और थी ,
जिसने न छोड़ा हाथ और
न दिया साथ
वो  किनारे पर बैठी –बैठी 
हवा में खो गई...
....
पर पलकों के साये में ,
जो झील रहती है,
उसमें बहुत पानी है ....
उसे कुछ गहरा किया है
और किनारों पर
थोड़ी मिट्टी डाली है ....
अगले सावन में तो पूरी भर जाएगी ।
.......रजनीश (05.02.2011)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....