Friday, April 29, 2011

कुछ बातें

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[1]
क्यूँ ढूंढते हो
गॉड पार्टिकल
कृत्रिम वातावरण में,
जबकि गॉड तो
हर पार्टिकल में है ।
[2]
तुम खोज लेते हो
कोई एक नेता
क्यूंकि तुम नहीं चाहते
खुद कुछ  करना
और वक्त भी कहाँ तुम्हारे पास  !
[3]
तुम कहते रहते हो
खत्म हो जाएगी दुनिया
क्यूंकि तुम्हें  चाहिए
कोई बड़ा सा डर
जो तुम्हारे छोटे-छोटे
डर निगल जाये ।
[4]
तुम भ्रष्टाचार
के जिस पेड़ की
टहनियाँ जंतर-मंतर पर
काट रहे थे
उसकी जड़ें तुम्हारे
आँगन तक आई हैं ।
[5]
महापुरुष का
उत्तराधिकारी नहीं होता
क्यूंकि
महापुरुष नाम का
कोई पद नहीं होता ।
...रजनीश (29.04.11)

Tuesday, April 26, 2011

गुलमोहर और पलाश

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रोज गुजरता हूँ  इधर से
वही रास्ता  हर दिन जैसे
एक चक्कर में घूमती जिंदगी,
और मिलता है वही पलाश 
जो इतराता था कल तक
अपने मदमस्त फूलों पर,
अब  मायूस खड़ा रहता है
खोया सा पेड़ों के झुंड में,
कभी मैंने भी की थी कोशिश
कि उसका कुछ रंग चढ़े मुझ पर ,
आज वो खुद दिखता बदरंग , बैचेन
जैसे खो गई  हो उसकी पहचान,
दिन तो फिरे हैं अभी
उस घमंडी गुलमोहर के,
जो चार कदम दूर ही मिलता है,
पलाश को मुँह चिढ़ाता
पुराना बदला लेता,
चटख लाल हुआ जा रहा है
जैसे  ढेरों सूरज उगे हों,
इसी रास्ते से गुजरती है एक गाड़ी
पलाश पढ़ता है गाड़ी पर लिखी इबारत
'दूसरे की दौलत देखकर हैरान न हो
ऊपर वाला तुझे भी देगा परेशान न हो',
मैंने दोनों से ही कहा, पगलों!
व्यर्थ हो जलते , व्यर्थ ही कुढ़ते
क्यों भूलते मौसम एक दिन
पतझड़ का भी  आता है
पर गम न करो  वो  झोली में
फिर से एक बसंत दे जाता है ...
...रजनीश( 26.04.11)

Sunday, April 24, 2011

एक नकली फूल

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मत करो
नकली फूल से नफ़रत
मैंने तो उसे एक, अमिट याद सा
दीवार पे लगाया है ,
ये कब से है
वैसा का वैसा ,
असली फूल तो
कुछ पल का साथी है,
उसे एक टहनी से काटकर
गुलदस्ते में लटकाकर
तिल-तिल करके मारते हो
और  उसकी गंध सूंघते हो ,
फिर फेंक देते हो ,
पता नहीं कैसे होता है
तुम्हें ताजगी का अहसास।
फूल को आखिर क्यूँ नहीं
बिखेरने देते खुशबू बगिया में,
जहां उसके पराग से
बनें कई और घर फूलों के,
नकली फूलों पर अगर धूल चढ़ जाये
तो उसे धोकर साफ कर लेना ,
बिलकुल नए हो जाएंगे,
और कुछ फूल बच जाएँगे ...
...रजनीश (22.04.11)

Friday, April 22, 2011

शीर्षक

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अगर  कोई शीर्षक
ना दिया होता 
तो क्या तुम इसे नहीं पढ़ते ?
और अगर पढ़ लेते
फिर जरूरत ही क्या
तुम्हें शीर्षक की ?
क्या तुम तय करते हो इससे ,
पढ़ना या  ना  पढ़ना ?
पर शीर्षक , कोई कविता तो नहीं
उसका एक अधूरा, अत्यल्प आभास है,
वो तो दीवार पर लगी एक तख्ती भर है,
जो बताती है कि यहाँ पर लगा है
जज़्बातों का अनंत ढेर,
इसे खँगालो और अपना मोती ले जाओ ..
शीर्षक पर मत जाओ
वो तो बस एक नाम ही है ...
...रजनीश (21.04.11)

Wednesday, April 20, 2011

एक अलिखित कविता

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सोचता हूँ
तुम्हें लिख दूँ
एक कविता में,
पर पहली-पहली कुछ लाइनें
मुझसे कोरी ही रह जाएंगी,
और कुछ आखिरी
लाइनें  मैं जानता नहीं
पर इतना जानता हूँ
वो नहीं समाएंगी इस पन्ने में,
और बीच में बस
  पहली और आखिरी
लाइनों की दूरी बयां होगी,
अगर लिखूँ तो
बहुत सी लाइनें तो कटी हुई मिलेंगी तुम्हें
और जो शब्द बच गए
पता नहीं 
कब तक रुकेंगे
लाइनों पर,
बहुत से शब्द तो मेरे पास नहीं
तुमने ही रखे  हैं,
और पन्ना भी
बस एक ही है मेरे पास...
...रजनीश (19.04.11)

Monday, April 18, 2011

साँप-सीढ़ी

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विचारों  की सीढ़ियाँ
सीधी नहीं होतीं,
इनमें फिसलन भी होती है,
पायदानों पर  उगती-टूटती, नयी-पुरानी ,
साथ लगी होती हैं भावों की सीढ़ियाँ ...

ये सीढ़ियाँ एक दूसरे से जुड़ीं,
कुछ ऊपर जातीं,
कहीं कुछ 'पाये' होते ही नहीं,
कुछ पाये बड़े कमजोर होते हैं,
कोई हिस्सा बस हवा में होता है,
कुछ नीचे उतरतीं सीढ़ियाँ ...

कुछ हिस्से दलदल में,
कुछ मजबूती से बंधे जमीं से,
बीच होते हैं साँप भी,
- कुछ छोटे और कुछ बहुत बड़े,
लड़ते  हैं आपस में ये साँप और सीढ़ियाँ

मैं  पासे फेंकता हूँ
और चलता जाता हूँ ,
बस  ऊपर-नीचे होता रहता हूँ ,
क्या करूँ इसके बाहर कूद भी नहीं सकता,
दिन रात उलझाए रहते हैं
मुझे ये साँप और सीढ़ियाँ ....
...रजनीश (18.04.11)

Sunday, April 17, 2011

एक सपने की बात

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सपना तो बस सपना   होता है,
जैसा भी हो ये अपना होता है,
पर जो टूट जाये वो सपना कैसा..
पूरा सच हो जाये वो सपना कैसा..

सपना वही जो सपना ही रहे,
हरकदम जो तुम्हारे संग चले,
ना  टूटे , ना तोड़े , ना पूरा मिले,
साँसे दे तुम्हें, बढ़ाए हौसले..

लगो दिल से  सच करने उसे,
जो  कभी खत्म नहीं होता है,  
इंसानियत से जीना भी,
ऐसा ही सपना होता है ...
...रजनीश (17.04.11)

Tuesday, April 12, 2011

भ्रष्टाचार

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कब किया था भ्रष्टाचार
मैंने पहली बार ?
तब , जब
दूसरा चॉकलेट पाने के लिए
बेमन से गाया था गाना बचपन में,
या तब, जब
झूठ ही 'तबीयत खराब थी' कहकर बचा था
होमवर्क न करने की सज़ा से,
या तब, जब
नज़रें चुराकर
भाई के हिस्से की मिठाई निकाली थी,
या तब , जब
साझे मेँ तोड़ी कुछ इमलियाँ
बिना बंटवारा किए अपनी जेब मेँ डाला था हौले से,
या फिर तब , जब
मिठाई लेने के लिए मैं
चुपचाप लाइन तोड़ आगे घुस गया था,
या फिर तब, जब
दोस्त को बचाया था मीठी गोलियों की एक चोरी मेँ
क्यूंकि वो देता था एक हिस्सा ईमानदारी से ,
या  तब, जब
स्कूल मेँ लैब असिस्टेंट से
खूब मिन्नते की थीं चिल्हर  दिखाकर 
ताकि बताए वो मिश्रण का कंपोजीशन, 
या  तब, जब
बड़ी सफाई से बगल वाले के पत्ते देखकर
जीता था ताश के खेल मेँ ,
या फिर तब , जब
एक प्रश्न का उत्तर
नकल कर लिखा था परीक्षा मेँ,
और भी बहुत कुछ है क्या क्या लिखूँ ?
पता नहीं,    
पर लगता है तभी किया होगा कहीं,
बचपन मेँ ही
भ्रष्टाचार पहली बार ...
...रजनीश (11.04.2011)

Sunday, April 10, 2011

मिलावट

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मत खाना कुट्टू का आटा
इसमें भ्रष्टाचार मिला है,
दूध में नहीं दूध,
हैवानियत का क्षार मिला है..

पानी में है पानी
पर इसकी अलग कहानी,
कैसे पी लें इसमें भी तो
बीमारी का बुखार मिला है..

हरी सब्जी में हरा कुछ नहीं,
स्वाद फलों का कृत्रिम है,
सब कुछ नकली झूठा लगता
ये कैसा संसार मिला है ?
...,रजनीश (10.04.11)

Tuesday, April 5, 2011

एक चित्र

flower
तुम जब भी मिलते हो मुझसे
तब तुमसे मुखातिब मैं नहीं
बल्कि होती है एक  तस्वीर  ,
जानता हूँ , मैंने अपने एहसासों में देखा है,
तुमने जताया भी है हरदम कि-
वो तस्वीर है मेरी
तुम्हारे हाथों में,
पर मैंने नहीं दी तुम्हें,
मेरा  आटोग्राफ भी नहीं,
और तो और, मै   दिखता ही नहीं इसमें,
इसे तुमने खुद ही बनाया है ,
ठीक है मैं तुम्हारे सामने ही था
जब तुम मेरा अक्स उतार रहे थे
अपने रंगों और अपने ब्रश से,
कोई अंधेरा तो नहीं था वहाँ
ना ही कोई नकाब ओढ़े था मैं उस वक्त,
मैं बहुत करीब था ,
तुम रेखाएँ खींचते रहे और रंग भरते रहे ,
पर शायद मैं साफ़-साफ़ दिखा नहीं,
तुम चुपचाप बनाते चले गए, 
कम से कम बताना तो था
कि   उस वक्त दबे पाँव
जो उभर रहा था   
वो मेरा ही चेहरा था,
मैं कर सकता था  तुम्हारी कुछ मदद
और तब मैं ही मिला होता
तुम्हें इस तस्वीर में ...
और जब मैं खुद सामने हूँ अभी तुम्हारे
हमारे बीच से तुम ये तस्वीर  हटा क्यूँ नहीं लेते ...
...रजनीश ( 05.04.11)

Sunday, April 3, 2011

चंद शेर

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स्वर्ग  और नर्क के संसार यहीं होते है ..
भगवान और शैतान के दीदार यहीं होते हैं..

मिलने गया था कल इमाँ से उसकी बस्ती में ,
देखा  कुछ लोग उसकी तस्वीर लिए रोते हैं..

हमारे सपनों की लड़ियों में स्वर्ण-महल ही नहीं
बस  इक आशियाने के अरमान हम पिरोते हैं..

किया था प्यार  कि ज़िंदगी को मुकाम मिल जाये,
है अंजाम ये कि अपने काँधों  पे   ज़ख्म ढोते हैं ...

ख़्वाहिश  उनसे मिलने की मिट जाती है देखने भर से,
ये दुनिया है  उनकी   ,  हम किस्मत पे  अपनी रोते हैं..

बनाते रस्ते तुम  कि सफ़र सभी का हो आसां,
क्यूँ  अधूरे सफ़र फिर इन रस्तों पे खत्म होते हैं...
...रजनीश (03.04.11)
पुनः पधारकर अनुगृहीत करें .....