तकती रह गईं खिड़कियाँ धूप का आना ना हुआ
फंस के रह गई परदों में रात का जाना ना हुआ
दुनियादारी के खूब किस्से गली-गली चला करते है
कोशिश भी की पर कहीं ईमां बेच आना ना हुआ
चाहत हमें कहती रही दो उस सितमगर को जवाब
खुद की नज़रों में दिल से कभी गिर जाना ना हुआ
दिल पे चोट लगती रही अपना खून भी जलाया हमने
पर नादां नासमझ ही रहे थोड़ा झुक जाना ना हुआ
वक़्त हमें समझाता रहा दरिया के किनारे खड़े रहे
उलझे हुए टूटे धागों को पानी में छोड़ आना ना हुआ
माना है अपने हाथों में अपनी तक़दीर लिखते हैं हम
फिर भी कुछ मांगने ख़ुदा के दर ना जाना ना हुआ
....रजनीश ( 16.10.2011)