दिन का हर सिरा
वही पुराना लगता है
वही चेहरे वही खबरें
वही रास्ता वही गाड़ी
वही हवा वही धूप
वही रोड़े वही कोड़े
फ्रेम दर फ्रेम
दिन की दास्तां
वही पुरानी लगती है ...
एक सी काली रातों में
कुछ उतनी ही करवटें
नींद तोड़-तोड़ कर आंखे
देखती मकड़जालों से लटके
वही फटे-पुराने ख़्वाब
कभी पर्दे से झाँकता
दिन का वही भूत
रात की भी हर बात
वही पुरानी लगती है ...
एक ही गाना
चलता बार-बार
हर बार झंकृत होता
वही एक तार
फिर भी उड़ती नहीं
कल की फिक्र धुएँ में
एक सी जलन हर पल सीने में
नादान दिल का डर भी
वही पुराना लगता है ...
चलो छोड़ो कुछ पल इसे
रखो बगल में अपनी गठरी
थोड़ा सुस्ताएँ !
आओ बैठें , एक दूजे को
जरा निहारें ,
कुछ बतियाएँ !
कैसे हो गए !
चलो एक-एक प्याला चाय हो जाए
कुछ ऊब से गए हैं
थोड़ा सा रूमानी हुआ जाए ....
... रजनीश (17.05.11)